“ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ब्याहरन्मामनुस्मरन् ।। यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्” ।। गीता 8.13 ।।
इस योगावस्था में स्थिर होकर तथा ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान का चिन्तन करता है और अपने शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ :
Uttering of one-syllabled OM-the Brahman and meditating on Me-he who departs, leaving the body, attains the Supreme Goal.
गंगा कहती है..
तुम्हारा अंत काल में हमसे जुड़ना, तुम्हारा “गंगा-योग”
होना क्या है? इसे सुनों, ध्यान रखना कि अंतकाल में तुम वही कर सकोगे, जिसका अभ्यास तुमने जीवनभर किया
है. अतः जीवन में गंगा-योग करना क्या है? उसे सुनो
(1)
गंगा के लिये अपने इन्द्री-द्वारों को बंद रखना.
अर्थात् गंगा में अपने शरीर की किसी तरह की गन्दगी को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष
रूप से गंगा में विसर्जित नहीं होने
देना. क्या इसका निर्वहन तुमने जीवन में कभी किया? पहले के समय में यही आचरण था कि लोग घर में स्नान करने के उपरांत ही गंगा में प्रवेश किया करते थे, परन्तु अभी की स्थिति यह है कि करोड़ों लीटर अनियंत्रित-अव्यवस्थित प्रत्यक्ष मल-जल प्रवाहित किया जा रहा है. अतः गंगा के लिये तुमने इन्द्रिय-संयम नहीं रखा, तब मैं तुम्हें मृत्व के समय में कैसे याद आऊंगी?
(2)
“मन को हदय में रखना”, योग का दूसरा सिद्धांत अर्थात
नियंत्रित इच्छाएं. तुम्हारी इच्छायें अनंत, असंख्य-बाँध, समस्त-जल-दोहन, जल-परिवहन आदि की तुम्हारी उफनती मन की तरंगें है. अत: तुम योग के इस बिन्दु को भी फेल कर गये, तब कहो, तुम्हारे मृत्व के समय मैं कैसे आऊंगी?
(3)
योग का तीसरा संकल्प-बिन्दु है, प्राणवायु को सिरपर केन्द्रित करना अर्थात स्थिर और दृढ़संकल्पित होना. गंगा-व्यवस्था
का ठोस-निर्धारण होना, यह भी तुमसे नहीं हो पा
रहा. अतः तुम “गंगा-योग-भ्रष्ट” हो, मैं तुम्हें “परमां-गतिम्” नहीं दे सकती.