“सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।। मूर्ध्न्यायात्मना प्राणामास्थितां योगधारणाम” ।। गीता : 8.12 ।।
समस्त इन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति, योगधारणा कहा जाता है. इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बंद करके तथा मन को हृदय में और प्राण वायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ :
Controlling all the senses, confining the mind in the heart, drawing the Pran into the head are occupied in the practice of concentration.
गंगा कहती है..
“नदी-इन्द्रियों” के समस्त द्वारों को नियंत्रित और व्यवस्थित करना ही “नदी-प्रबंधन-तकनीक, योग है. नदीतल के मिट्टी और ढाल के बदलते स्वरूप, नत्तोदर से उन्नत्तोदर किनारों के बीच बदलती दूरियां, छिन्न-भिन्न और तितर-बितर होता चला जा रहा नदी-पेट का विकराल रूप, सिमटती-चिमटती-बदरंग होती जा रही नदी की अंतड़ियों और झड़ित एवं बढ़ते-ढाल से ग्रसित होती जा रही गंगा का विशाल-मैदानी-क्षेत्र. इन नदी- इन्द्रियो मे रूपांतरण बढ़ते-बदलते वातावरणीय-शक्तिक्षय का द्योतक है. अतः समग्रता के साथ नदी-इन्द्री-व्यवस्था ही वातावरणीय-संतुलन का समीकरण, नदी-इन्द्री-योग प्रस्तुत करता है.