“यदक्षरं वेदविदो वदन्ति बिशन्ति यद्यतयो बीतरागाः ।। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरंति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये” ।। गीता: 8.11 ।।
जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो सन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि हैं. वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं, ऐसी सिद्धि की इच्छा करने बाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं. अब मैं तुम्हें वह विधि बताउँगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्तिलाभ कर सकता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ :
What
the knowers of the Vedas speak of as Imperishable, what the self controlled
Sanyasi, freed from attachment enter and to gain which goal they live the life
of a Brahmchari, that I shall declare unto thee in brief.
गंगा कहती है..
वेदों के ज्ञाता,
सन्यासी, ब्रह्मचारी की तपस्थली का ध्यान से तुम अवलोकन करो, यह मेरा धराधाम है. मेरी भूस्थली की भौतिक और रासायनिक संरचनायें, खासकर, सरल-ढ़ाल, चरित्र की सरलता को, सामान्यत: परिभाषित
करता है. हमारे जल के विभिन्न गुणों के अतिरिक्त ध्वनि-तरंग-अवशोषण-शक्ति के महान-चरित्र का तुम अध्ययन करो. जब ध्वनि-तरंगे किसी भी जल में प्रविष्ट करती हैं तो जल की मॉलिक्यूलर व्यवस्था में रूपांतरण होता है. इसे जापान के वैज्ञानिकों नें सत्यापित करके दिखलाया है. तुम हमारे जल का परीक्षण करवाओ, ”ऊँ” की ध्वनि-तरंगों से इसे तरंगित विभिन्न परिस्थियो में
परीक्षण करो, तुम देखोगे कि मेरा जल न्यूनतम समय में अधिकतम संघनित और सुसज्जित रूप से अपने मॉलिक्यूलस को सजाता है. जल की इस महान “ध्वनि-तरंग-अवशोषण-शक्ति” के चारित्रिक गुण का प्रत्यक्ष उदाहरण, पंडितराज जगन्नाथ जी ने, काशी में पंचगंगा घाट पर बैठकर अपने 53 श्लोक के भाव-विभोर-गान से गंगा को सीढ़ी-दर-सीढ़ी उठवाया
था. गंगा की “ध्वनि-तरंग-अवशोषण-शक्ति”
विश्व में अकेली और अद्भुत है, अत: जो तुम कठोर तपस्या से प्राप्त करोगे तथा “ऊँ” के उच्चारण से शांति प्राप्त करोगे, वह अद्भुत
“शांति-द्रव्य” हमारा जल है.