“यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेबरम् ।। तं तमेबैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः” ।। गीता: 8.6 ।।
भाव,
कोशिका की
व्यवस्था को सम्बोधित करता है. भाव- विचार यदि उत्तम हों तो, कोशिका सीधी रहती
है और यदि दूषित-मलिन हों तो, कोशिका टेढ़ी. अब कौन, कितने दिन कोशिका को सीधी या टेढ़ी रखता है, उसी के आधार पर
निर्भर करता है कि मरण के समय उसके शरीर की कोशिका व्यवस्था क्या है? अत: जीवन भर
व्यक्ति ने जिन जिन कार्यों को गहराई से, लग्न लगाकर किया है..तदनुरूप उसकी कोशिका की स्थिति रहती
है. इसी स्थिति को यह कोशिका प्राप्त करना चाहेगी तथा इसी के अनुरूप व्यक्ति के
विचार मृत्वकाल में आयेंगे. अगले जन्म में पुन: मुषिको भव: को प्राप्त हो जायेंगे
और फिर से व्यक्ति की चक्की चलने लगेगी. यही है “करनी देखो मरनी बेरियाँ” संस्कार, transfer of genetic
property ; principle of conservation of work: यही भगवान
श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते
हैं कि जिस जिस भाव का स्मरण, शरीर त्यागते समय मनुष्य करता है वह उसी भाव को निश्चित रूप
से प्राप्त होता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ :
Remembering
what ever object, at the end, he leaves the body, that alone is reached by him,
O son of Kunti because of his constant thought of that object.
गंगा कहती है,
यदि तुम, दिन-रात, शान ओ शोकत, मान-मर्यादा, ऐशोआराम अर्थात् भोग-विलास में व्यस्त हो, ऐसी स्थिति में
गंगा में डुबकी लगाते समय भी तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी श्रद्धा, तुम्हारी तन्मयता कहीं ओर है. अतः विभिन्न धंधों में लगी
तुम्हारी गहन तन्मयता के कारण, गंगा-स्नान से, कोशिका का धंधों के प्रति झुकाव नहीं मिटा, वह टेढा का टेढ़ा
रह गया. अतः पदार्थिय-लगाव,
ही, गंगा के प्रति
तुम्हारी श्रद्धा की कमी और मृत्व तक विभिन्न पदार्थों से लगाव और इस लगाव के साथ
जन्म लेने का कारण है.