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असम की बाढ़, कारण और निवारण के बीच फंसे लोग

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  • Arun Tiwari
  • July-11-2022

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असम में बाढ़ कोई नई घटना नहीं है। किन्तु मानसून के पहले ही चरण में बाढ़ का इतना ज्यादा टिक जाना और इसके लिए सरकार के मुखिया द्वारा लोगों पर दोषारोपण असम के लिए नई घटना है।

गौर फरमाइए कि असम के मुख्यमंत्री ने सिल्चर नगर की बाढ़ के लिए बराक नदी के तटबंध के क्षतिग्रस्त हो जाने को जिम्मेदार ठहराया है। किन्तु किसी एक तटबंध के क्षतिग्रस्त हो जाने के लिए कुछ लोगों को दोषी ठहराकर श्रीमान हिमंत बिस्वा अपनी सरकारी जवाबदेही से बच नहीं सकते। रिपोतार्ज कह रहे हैं कि अब तक एक नहीं, 297 तटबंध क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। सैंड्रप नामक प्रख्यात अध्ययन केंद्र के मुताबिक, रखरखाव और सतत निगरानी के अभाव में ऐसा हुआ है। क्या मुख्यमंत्री महोदय इसके लिए भी लोगों को जिम्मेदार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ लेंगे ?

यह एक पहलू है।

दूसरा पहलू यह है कि तटबंध यहाँ न दरकते तो क्या नदी उफनती ही न ? क्या नदी यूं ही सहज बह जाती? विशेषज्ञ कहते हैं कि जंगलों के कटान, मलबे की डंपिंग तथा नदी व अन्य जल ढांचों की जमीन पर बढ़े कब्जे ने बाढ़ के रूप को विकराल किया है। बांधों के निर्माण और प्रबंधन को लेकर सवाल हैं ही। जाहिर है कि नदी यहां न उफनती, तो कहीं और कहर ढहाती। यदि तटबंध नदी के बाढ़ क्षेत्र (फ्लड प्लेन एरिया) के भीतर बनेंगे तो एक न एक दिन दरकेंगे ही।

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क्या नदी के वेग को आवेग में बदलने में तटबंधों की कोई भूमिका नहीं ?

तटबंधों के बीच नदी और उसके किनारे बसी बसावटों के फंसने के कष्ट को कोसी नदी के बाशिंदों से ज्यादा कौन जानता है ? बावजूद इसके यदि यमुना नदी की भूमि पर अक्षरधाम, खेलगांव, मेट्रो स्टेशन की सुरक्षा के लिए नया तटबंध बनाते वक़्त जब राजधानी ने ही इस तथ्य की अनदेखी की है; गोमती, साबरमती समेत रिवर फ्रंट डेवलपमेंट की सारी परियोजनएं यही कर रही है तो लोगों को दोष क्यों?  

मेरी राय है किसी भी  राज्य में आने वाली बाढ़ों की विकरालता में अब  ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस-वे जैसे उन सभी महामार्गों की भूमिका की भी निष्पक्ष जांच की जानी चाहिए, जो नदी किनारे अक्खड़ तटबंधों की तरह खड़े हैं। इस बारे में इंजीनियरों, मुख्यमंत्रियों और भारत सरकार के सड़क मंत्रियों का आंखें मूंद लेना, तारीफ के काबिल कतई नहीं।

जरुरत किसी भी बाढ़ के कारण और निवारण पर विस्तार से चर्चा करने की है । किन्तु चर्चा के शुरू में यह सवाल पूछ लेना जरुरी है कि क्या बाढ़ सचमुच इतनी बुरी घटना है कि हम इससे बचने के उपाय तलाशें ?

जवाब यह है कि है कि बाढ़ हमेशा बुरी नहीं होती; बुरी होती है एक सीमा से अधिक उसकी तीव्रता तथा उसका जरूरत से ज्यादा दिनों तक टिक जाना। मिट्टी, पानी और खेती के लिहाज से बाढ़ वरदान होती है। प्राकृतिक बाढ़ अपने साथ उपजाऊ मिट्टी, मछलियां और अगली फसल में अधिक उत्पादन लाती है। यह बाढ़ ही होती है कि जो नदी और उसके बाढ़ क्षेत्र के जल व मिट्टी का शोधन करती है। बाढ़ ही भूजल भण्डारों को उपयोगी जल से भर देती है। इस नाते बाढ़, जलचक्र के संतुलन की एक प्राकृतिक और जरूरी प्रक्रिया है। इसे आना ही चाहिए। बाढ़ के कारण ही आज गंगा का उपजाऊ मैदान है। बंगाल का माछ-भात है। बिहार के कितने इलाकों में बिना सिंचाई के खेती है। जाहिर है कि हमें बाढ़ नहीं, बाढ़ के वेग और टिकने के दिनों के कारणों की तलाश करनी चाहिए। बारिश के दिनों में नगरों में जलभराव के कारण, तलाश का एक भिन्न विषय है।

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गौरतलब तथ्य

इस दिशा में सबसे गौरतलब तथ्य यह है कि इस वर्ष जिन तारीखों में बाढ़ व नगरों में जलभराव के समाचार सबसे ज्यादा आये, उन तारीखों में लगभग सभी संबधित राज्यों के वर्षा औसत में बढ़ोत्तरी की बजाय, कमी के आंकडे़ हैं। इससे स्पष्ट है कि बाढ़ का कारण वर्षा औसत की अधिकता तो कतई नहीं है।

साधारणतया बाढ़ में आई अप्रत्याशित तीव्रता के असल कारण पांच ही हैं: बादलों का फटना, नदियों में अधिक कटाव, अधिक गाद जमाव, नदी भूमि पर अतिक्रमण तथा बांध-बैराज व उनका कुप्रबंधन।  बाढ़ के अधिक टिक जाने के दो कारण है: मानव द्वारा नदियों को रास्ता बदलने को विवश करना तथा जलनिकासी मार्गों को अवरुद्ध किया जाना। 

आइये समझें कि कैसे?

कायदा यह है कि बारिश से पहले हर बांध के जलाश्य को खाली कर दिया जाना चाहिए। बारिश के दौरान लगातार थोड़ा-थोड़ा पानी छोड़ते रहना चाहिए। वर्ष 2016 में गंगा में आई बाढ़ को याद कीजिए कि आखिरकार हुआ क्या था। जून तक मध्य प्रदेश के लोग जलापूर्ति ने होने से परेशान थे। जलाश्य खाली कर उन्हे पानी पहुंचाया जा सकता था।  म.प्र. के बाणसागर बांध प्रबंधकों ने ऐसा नहीं किया। जलाश्य में 33.3 प्रतिशत से अधिक पानी को रोक कर रखा। 19 अगस्त की सुबह तक बाणसागर बांध में उसकी क्षमता का 96 प्रतिशत भरने की गलती की। फिर 19 अगस्त के दिन में दो घंटे में इतना पानी छोड़ दिया कि उसने उ.प्र.-बिहार तक को दुष्प्रभावित किया।

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ऐसी गलतियों के उदाहरण कई हैं। 

एक समय बनबासा बैराज से एक साथ पानी छोड़ने से उत्तराखण्ड में आई बाढ़ को भला हम कैसे भूल सकते हैं ? पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी हथिनीकुण्ड बैराज, नरोरा बैराज, अरैल बांध, रिहंद बांध आदि से छोडे़ गये पानी को मुख्य कारण के तौर पर चिन्हित किया गया है। यही स्थिति टोंक ज़िले में स्थित बीसलपुर बांध आदि से एक साथ छोड़े पानी के कारण राजस्थान जैसे कम पानी के इलाके भी देख चुके हैं।

बाढ़ के दुष्प्रभाव बढ़ाने में बांध-बैराजों की और क्या भूमिका है? 

होता यह है कि बांध-बैराजों से पानी धीरे-धीरे छोड़ने की स्थिति में पानी आगे बढ़ जाता है और उसमें मौजूद गाद नीचे बैठकर पीछे छूट जाती है। छूटी गाद, जगह-जगह एकत्र होकर नदी के बीच टापू का रूप ले लेती है। ये टापू, नदी का मार्ग बदलकर उसे विवश कर देते हैं कि पीछे से अधिक पानी आने पर वह नये क्षेत्र की यात्रा पर निकल जाये। हिमालयी नदियां अपने साथ ज्यादा गाद लेकर चलती हैं; लिहाजा, कुछ वर्ष पूर्व कोसी ने अपना रास्ता 200 किलोमीटर तक बदला। नया मार्ग इसके लिए तैयार नहीं होता। नया इलाका होने के कारण जलनिकासी में वक्त लगता है। जलनिकासी मार्गों में अवरोधों के कारण भी बाढ़ टिकाऊ हो जाती है। यही कारण है कि पहले तीन दिन टिकने वाली बाढ़, अब पूरे पखवाडे़ कहर बरपाती है; संपत्ति विनाश के अलावा बीमारी का कारण बनती है। दूसरी तरफ बांध-बैराजों से एक साथ छोड़ा पानी नदी किनारों के कटान का कारण बनता है। अचानक और बिना सूचना छोड़े अधिक पानी के लिए लोग तैयार नहीं होते। वे अनायास बाढ़ का शिकार बन जाते हैं। मध्य प्रदेश के तवा बांध ने भी कुछ वर्ष पूर्व यही किया था।   

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यहां यह याद करना जरूरी है कि - 

कभी कोलकाता बंदरगाह को गाद भराव से बचाने के नाम पर फरक्का बांध और बाढ़ मुक्ति के नाम पर कोसी तटंबध का निर्माण किया गया था। आज ये दोनो ही निर्माण बाढ़ की तीव्रता बढ़ाने वाले साबित हो रहे हैं। जिस गाद को समुद्र के करीब पहुंचकर डेल्टा बनाने थे, बांध-बैराजों में फंसने के कारण वह डेल्टा क्षेत्र में कमी और उनके डूब का कारण बन रही है। इसीलिए कोसी के तटबंध में फंसे गांव आज भी दुआ करते हैं कि तटबंध टूटे और उन्हे राहत मिले।

इसीलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, कभी खुद फरक्का बांध को तोड़े जाने की मांग कर चुके हैं। इसीलिए नदी के निचले तट की ओर औद्योगिक कॉरिडर, एक्सप्रेस-वे आदि निर्माण परियोजनाओं का विरोध किया जाता रहा है। इसीलिए अब बांध, बैराज और गाद को लेकर राष्ट्रीय नीति बनाने की मांग की जा रही है। इससे एक बात और स्पष्ट है कि बांध, बैराज, तटबंध और नहरों का निर्माण बाढ़ मुक्ति का उपाय नहीं है।

नदी को नहर या नाले का स्वरूप देने की गलती भी नहीं की जानी चाहिए। 'रिवर फ्रंट डेवल्पमेंट' के नाम पर कुछ दीवारें और चमकदार इमारतें खड़ी कर लेना, बाढ़ को विनाश के लिए खुद आमंत्रित करना है। बांध-बैराजों की उपस्थिति तथा नदी को उसके प्राकृतिक मार्ग से अलग कृत्रिम मार्ग पर ले जाने के कारण राष्ट्रीय नदी जोड़ परियोजना भी इसका उपाय नहीं है। 

उपाय है यह है कि -

बरसे पानी को नदी में आने से पहले ही अधिक से अधिक संचित कर धरती के पेट में बिठा देना। मिट्टी कटान को नियंत्रित करना और जलनिकासी मार्गों को अवरोधमुक्त बनाये रखना अन्य जरूरी सावधानियां हैं। खाली भूमि, उबड़-खाबड़-ढालदार भूमि, जंगल, छोटी वनस्पतियां, खेतों की ऊंची मज़बूत मेड़बंदियां, तालाब-झील जैसे जल संचयन ढांचे यही काम करते हैं। बादल फटे या कम समय में ढेर सारा पानी बरस जाये, बाढ़ की तीव्रता कम करने की तकनीक भी यही है और सूखे से संकट से निजात पाने की तकनीक भी यही। हमें यह सदैव याद रखना होगा।

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आइये, अब जरा नगरों के बाढ़ व जलजमाव की चपेट में आने के कारणों पर गौर करें। 

इसका एक कारण यह है कि नगरों के जलनिकासी तंत्र पहले एक बार में अधिकतम 12 से 20 मिलीमीटर वर्षा के हिसाब से डिज़ाइन किए जाते रहे हैं; जबकि पिछले पांच दशक के दौरान मुंबई, चेन्नई, दिल्ली जैसे नगरों में एक बार में 125 मिलीमीटर से अधिक तक वर्षा दर्ज करने के मौके देखने को मिले। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण स्वयं मानता है कि भारतीय नगरों की जलनिकासी क्षमता औसत वर्षा से बहुत अधिक कम है। देखरेख में कमी से यह क्षमता और कम हुई है। ठोस व पॉली कचरे के निष्पादन तथा मलबे को डंप करने के अवैज्ञानिक चाल-चलन तथा नदियों-तालाबों-झीलों के बाढ़ क्षेत्र में अतिक्रमण के कारण भी भूमि के ऊपर व नीचे के जलनिकासी मार्ग अवरुद्ध हुए हैं। दूसरी तरफ हर इंच को पक्का करने की बढ़ती प्रवृति के कारण बरसे पानी को सोखने की नगरीय क्षमता घटी है। 

मार्गदर्शी निर्देश हैं कि नगरों के निचले इलाकों को पार्कों, पार्किंग क्षेत्रों तथा अन्य खुले क्षेत्र के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। हमने इससे उलट श्रीनगर की डल व वूलर झील के बाढ़ क्षेत्र में कॉलोनियाँ बसा दी हैं। चेन्नई के 5000 हेक्टेयर से अधिक के मार्शलैंड को सिकोड़कर 500 हेक्टेयर में समेट दिया गया ? मुंबई के सिवरी के निकट स्थित दलदली क्षेत्र को ठोस कचरे से भर दिया गया।

गौर कीजिए कि जयपुर का अमानीशाह नाला, कभी एक नदी थी। हमने पहले उसका नाम बदला और फिर उसके भीतर तक पक्की बसावट होने दी है। जयपुर विकास प्राधिकरण ने खुद इस नदी भूमि में आवंटन किया। अलवर से निकलने वाली साबी नदी के साथ हरियाणा और दिल्ली ने यही किया। 

गुडगाँव का संकट 

गुडगांव का भू-आकार देखिए। गुड़गांव एक ऐसा कटोरा है, जिसकी जलनिकासी को सबसे ज्यादा साबी नदी का सहारा था। हरियाणा ने साबी का नाम बदलकर बादशाहपुर नाला और दिल्ली ने नजफगढ़ नाला लिखकर नदी को नदी रूप में बनाये रखने की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया।  तिस पर गलती यह कि बादशाहपुर नाले को कंक्रीट का बना दिया गया है। बसावट के कारण वह भी अतिक्रमण की चपेट में है। 1958 में नजफगढ़ झील की बाढ़ ने 145 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल घेरा था। अभी झील चार वर्ग किलोमीटर मे समेट दी गई है। नजफगढ़ झील से 100 साला बाढ़ के आधार पर गुड़गांव के नगर नियोजन विभाग ने सेक्टर 36बी, 101 आदि को बाढ़ के उच्चतम क्षेत्र में स्थित घोषित किया हुआ है। राज्य की पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण ने इन सेक्टरों में नींव का स्तर नजफगढ़ झील के उच्चतम बाढ़ स्तर से ऊंचा रखने की हिदायत दी थी। ऐसा नहीं हुआ। परिणाम यह है कि मात्र चार घंटे की बारिश में ही हम सभी ने गुड़गांव को जल भराव से त्राहि-त्राहि करते देखा है। हमें इन सभी गल़तियों से सीखना और तद्नुसार नियोजन करना होगा। 

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बाढ़ नुकसान कम करे -  

इसके लिए परपंरागत बाढ़ क्षेत्रों व हिमालय जैसे संवेदनशील होते नये इलाकों में समय से पूर्व सूचना का तकनीकी तंत्र विकसित करना जरूरी है। बाढ़ के परंपरागत क्षेत्रों में लोग जानते हैं कि बाढ़ कब आयेगी। वहां जरूरत बाढ़ आने से पहले सुरक्षा व सुविधा के लिए एहतियाती कदमों की हैं: 

पेयजल हेतु सुनिश्चित हैंडपम्पों को ऊंचा करना। जहां अत्यंत आवश्यक हो, पाइपलाइनों से साफ पानी की आपूर्ति करना। मकानों के निर्माण में आपदा निवारण मानकों की पालना। इसके लिए सरकार द्वारा जरूरतमंदों को जरूरी आर्थिक व तकनीकी मदद। मोबाइल बैंक, स्कूल, चिकित्सा सुविधा व  अनुकूल खानपान सामग्री सुविधा। ऊंचा स्थान देखकर वहां हर साल के लिए अस्थाई रिहायशी व प्रशासनिक कैम्प सुविधा। मवेशियों के लिए चारे-पानी का इंतजाम। ऊंचे स्थानों पर चारागाह क्षेत्रों का विकास। देसी दवाइयों का ज्ञान। कैसी आपदा आने पर क्या करें ? इसके लिए संभावित सभी इलाकों में निःशुल्क प्रशिक्षण देकर आपदा प्रबंधकों और स्वयंसेवकों की कुशल टीमें बनाईं जायें व संसाधन दिए जायें।

परंपरागत बाढ़ क्षेत्रों में बाढ़ अनुकूल फसलों का ज्ञान व उपजाने में सहयोग देना। बादल फटने की घटना वाले संभावित इलाकों में जल संरचना ढांचों को पूरी तरह पुख्ता बनाना। यही उपाय हैं।

असम भी एक ऐसा परम्परागत बाढ़ क्षेत्र है। क्या असम ने यह किया ?

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गंगा नदी - प्राकृतिक संपदा के संरक्षण के लिए हिमालय का संरक्षण होना आवश्यक है (MMITGM : 36 व 37)

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MMITGM : (36)हिमालयन-शिवलिंग के बदलते स्वरूप से, इसकी न्यून होते शक्ति-संतुलन से, तीव्र होता विश्व की आर्थिक सम्पदा विघटन और प्रचंड होती विश...
गंगा नदी - गंगा नदी संरक्षण का दससूत्रीय कार्यक्रम

गंगा नदी - गंगा नदी संरक्षण का दससूत्रीय कार्यक्रम

हिमालय तीन प्रमुख भारतीय नदियों का स्रोत है, यानि सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र. लगभग 2,525 किलोमीटर (किमी) तक बहने वाली गंगा भारत की सबसे लंबी...
गंगा नदी - गंगा और मानव-शरीर में जीवन्त समरूपता, गंगा और मानव-शरीर पर स्थान और समय के प्रभाव में समरूपता : अध्याय-3 (3.7)

गंगा नदी - गंगा और मानव-शरीर में जीवन्त समरूपता, गंगा और मानव-शरीर पर स्थान और समय के प्रभाव में समरूपता : अध्याय-3 (3.7)

जिस तरह विभिन्न क्षेत्रों, प्रांतों व देशों के लोग, विभिन्न शारीरिक एवं चारित्रिक गुणों के होते हैं, उसी तरह विभिन्न क्षेत्रों एवं देशों की ...
गंगा नदी - हिमालय पृथ्वी के वातावरण और जलवायु को निर्धारित करता है, यह वातावरण का कंट्रोलिंग पॉवर हाउस है. MMITGM : (34 व 35)

गंगा नदी - हिमालय पृथ्वी के वातावरण और जलवायु को निर्धारित करता है, यह वातावरण का कंट्रोलिंग पॉवर हाउस है. MMITGM : (34 व 35)

केन्द्रस्थ : Catching hold of Nucleus : MMITGM : (34) हिमालयन शिवलिंग भारत सहित समस्त पृथ्वी के वातावरण और जलवायु के पर्वतीय पावर मोनीटरिंग ...
गंगा नदी - एनजीसी की बैठक में लिया गया निर्णय – गंगा की सहायक नदियाँ भी की जाएंगी प्रदूषण मुक्त

गंगा नदी - एनजीसी की बैठक में लिया गया निर्णय – गंगा की सहायक नदियाँ भी की जाएंगी प्रदूषण मुक्त

नेशनल गंगा काउंसिल की प्रथम बैठक में प्रधानमंत्री माननीय मोदी ने कहा कि जिस प्रकार गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास किए जा रहें हैं,...
गंगा नदी - गंगा और मानव-शरीर पर समय एवं स्थान के प्रभाव में समानता, अध्याय-3

गंगा नदी - गंगा और मानव-शरीर पर समय एवं स्थान के प्रभाव में समानता, अध्याय-3

बरसात के बाद गंगा का जल-स्तर, मिट्टी का आयतन, ऑक्सीजन की मात्रा, ऊर्जा तथा शरीर का आकार घटने लगता है. ऐसी स्थिति में भूमिगत जल जो बरसात में ...
गंगा नदी - पहाड़, शिव का जीवन्त-शरीर है (MMITGM : (31 व 32)

गंगा नदी - पहाड़, शिव का जीवन्त-शरीर है (MMITGM : (31 व 32)

कण-कण में, हर एक एटम में, एलेक्ट्रोन और प्रोटोन के बराबरी रूप से विराजमान न्यूट्रॉन, ब्रह्मांड को आच्छादित करने वाले, भगवान शिव से-हे भोलेना...
गंगा नदी - पहाड़ों और नदियों के संबंध को समझने के लिए जानना होगा पौराणिक-धार्मिक धाराओं को : MMITGM : (29 व 30)

गंगा नदी - पहाड़ों और नदियों के संबंध को समझने के लिए जानना होगा पौराणिक-धार्मिक धाराओं को : MMITGM : (29 व 30)

MMITGM : (29), पहाड़ शिवलिंग हैं - भगवान शिव से-हे भोलेनाथ! पहाड़ रूप महान स्थिर और केन्द्रस्थ, आप का शिवलिंग जड़ पाताल में कहाँ है पता नहीं. च...
गंगा नदी - नदियों का चारित्रिक गुण समझना होगा, गंगत्त्व में ही छिपा है हिंदुत्व (MMITGM : 27 व 28)

गंगा नदी - नदियों का चारित्रिक गुण समझना होगा, गंगत्त्व में ही छिपा है हिंदुत्व (MMITGM : 27 व 28)

MMITGM : (27) भगवान शिव से-हे भोलेनाथ! विश्व भर में पर्वतों के विभिन्न स्वरूपों को धारण करने वाले आप हैं. जैसे मानव शरीर में हृदय रक्त मस्ति...
गंगा नदी - गंगा और मानव-शरीर में जीवन्त समरूपता : MMITGM (31)

गंगा नदी - गंगा और मानव-शरीर में जीवन्त समरूपता : MMITGM (31)

मानव युवा-अवस्था में प्रदूषित भोजन, जल एवं वायु को बहुत हद तक अपने शरीर में व्यवस्थित करने का सामर्थ्य रखता है. उसी तरह गंगा की शक्ति बरसात ...
गंगा नदी - आणविक सिद्धांत का प्रदिपादन : MMITGM : (24 व 25)

गंगा नदी - आणविक सिद्धांत का प्रदिपादन : MMITGM : (24 व 25)

भगवान शिव से- हे भोलेनाथ! आज भगवान श्रीकृष्ण के कथन, "अच्छेद्योअ्यमदाह्येअ्यमक्लेद्योअ्शोष्य एव च। नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोअ्यं सनातनः"।। (...
गंगा नदी – शक्ति तरंगों का सिद्धांत, MMITGM: (22 & 23)

गंगा नदी – शक्ति तरंगों का सिद्धांत, MMITGM: (22 & 23)

MMITGM: 22 भगवान शिव से - हे भोलेनाथ! भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं (गीता-2.22) जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करत...
गंगा नदी - आत्मा और परमात्मा के खेल को समझना आवश्यक है : MMITGM : (18 & 19)

गंगा नदी - आत्मा और परमात्मा के खेल को समझना आवश्यक है : MMITGM : (18 & 19)

MMITGM : (18) भगवान शिव से - हे भालेनाथ! आत्मा न तो किसी को मारती है और न ही किसी के द्वारा मारी जाती है.. (भगवान श्रीकृष्णा कहते हैं गीता-2...
गंगा नदी : जानें इग्नोरेंस ऑफ ट्रुथ के सिद्धांत को : MMITGM : (16 and 17)

गंगा नदी : जानें इग्नोरेंस ऑफ ट्रुथ के सिद्धांत को : MMITGM : (16 and 17)

शिवसे-हे भोलेनाथ! भगवान श्रीकृष्ण की उक्ति है (गीता-2.17) कि “जो सारे शरीर में व्यापत है, उसे ही तुम अविनाशी जान”, इसका अर्थ नहीं लग रहा है ...
गंगा और मानव-शरीर में जीवन्त समरूपता : (आंगिक समानता, अध्याय-2 एवं 3)

गंगा और मानव-शरीर में जीवन्त समरूपता : (आंगिक समानता, अध्याय-2 एवं 3)

गंगा का डेल्टा, मानव-शरीर के पाँव की तरह है. मानव शरीर का पाँव चौड़ा और चिमटा होता है तथा इसमें ढ़ाल बहुत कम होता है. रक्त का संचार यहाँ धीमा ...

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