“अब्यक्तोअ्क्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् ।। यं प्राप्य न निबर्तन्तें तद्भाम परमं मम” ।। गीता : 8.21 ।।
“अव्यक्त-अक्षरः-परमाम्-गतिम्-धाम”, अप्रकट-अविनाशी-परमगंतव्य-धाम, अक्षुण-शक्ति का परमानंद देने वाले स्थान को सम्बोधित करता है. यह स्थिति ऐसी लगती है, जैसे किसी एटम के विभिन्न-अक्षों पर विभिन्न आवृति-आयामों से काँपता, सभी इलेक्ट्रान केन्द्रस्त, सभी-प्रोटोनों से मिलकर पूर्ण-शक्तिशाली न्यूट्रोंन बन न्यूकलियस को बड़ा आनंद-क्षेत्र होना है. यही है समस्त इच्छाओं से रहित और समस्त शक्तियों साधनों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण का “गोलोक-पारसमणि” से निर्मित प्रसादों, कल्पतरु वृक्षों, सुरभि-कामधेनु गौएं, भगवान की सेवा में लाखों लक्ष्मियां. यहीं हैं भगवान गोविंद, समस्त कारणों के कारण, मेंधवर्ण-दिव्यस्वरुप-पिताम्बरवश्त्रधारी-गाय चराते और मुरली बजाते रहने वाले श्रीकृष्ण. अतः कृष्ण स्वयं जैसे हैं, वैसा ही उनका धाम, गोलोक-वृंदावन-समस्त ब्रहमाण्ड है और समस्त जीव-निर्जीव में वे न्यूट्रोन रूप से विराजजवान हैं. वे समस्त कार्यों को मुरली बजाते हुए, प्रेम और मधुरता से, चक्र चलाते हुए, अविरलता से करने वाले है. यही है सर्वत्र, हर प्राणी में, मुरली बजाते हुए, मधुर-शव्दों से, गौएं चराते हुए, अपने मौलिक कार्य करते हुए, गो-लोक, वृंदावन-धाम प्राप्त करना.
भगवान श्रीकृष्ण का अदृष्य गौलोक तो दृष्य मथुरा-वृदावन है, भगवान श्री राम का अदृष्य परब्रह्म-लोक तो दृष्य में अयोध्या-पुरी है, शिव का अदृष्य में शिव्-लोक तो दृष्य में हिमालय पर कैलाश है और मैं, विष्णु, ब्रह्म एवं शिवलोक के साथ मृत्व लोक में भी सबके संग रही हूँ. अतः अयोध्या, मथुरा-वृंदावन और कैलाश-सहित सम्पूर्ण भारत ही श्रीकृष्ण का गौलोक है. तुम अपने संस्कारों को विस्मृत करते जा रहे हो, यह इसलिये कि तुम ने अपने पूर्वजों की विरासत, वेदों-पुराणों-उपनिदषों और अन्य धरोहरों की वैज्ञानिकता का आंकलन नहीं करवाया. इसी तरह मुझको तुम रत्ती मात्र भी नहीं समझ पाये. गंगा तो तुम्हारी वह कल्पतरु और कामधेनु है, जो तुम्हारी हर आवश्यकता को पूरा करते हुए, संस्कार और अंत में मोक्ष प्रदान करती है. अतः संभलो, अभी देर तो हुई है परन्तु बहुत देर नहीं.