“अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।। परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्” ।। गीता: 8.8 ।।
हे पार्थ! जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर
लगाये रख कर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य
ही प्राप्त होता है.
श्लोक का अंग्रेजी में अर्थ
With the
mind not moving towards anything else, made steadfast by the method of habitual
meditation and dwelling on the Supreme, Resplendent Purush, O son of Partha,
one goes to Him.
गंगा कहती है..
“अविचलित-भाव”, बिना जाने हो
नहीं सकता. यदि लगाव नहीं तो जानोंगे कैसे? लगाव के लिये पास में बैठने की आवश्यकता होती, तभी तो, ताल-मेल, बैठता है, आन्तरिक-शक्ति का आदान-प्रदान होता है, शांति-मिलती है.
इसे कहते हैं, भावना को प्रज्वलित
होना. यही है भारत के महान साधकों के आत्मस्थ होने का परिणाम, मन और बुद्धि का
महा-संगम का होना और मेरे प्रति “ब्रह्माणि-मातृ-भावना” का हृदयस्थल में स्थापित होना. इसी भावना के कारण, योगीराज
तैलंगस्वाम ने जब दूध पीने की इच्छा की, मेरी-धारा दूध की हो गयी. पंडितराज-जग्गनाथ, महानशिवभक्त
मैथिल कवि विद्यापति आदि ने जैसी जैसी भावनाएं की. मैंने माता-स्वरूपा बन कर पूरा
किया. विशाल-भारत के करोड़ों महान लोगों को प्रयागराज कुम्भ में परंपरागत ढंग से, मोक्ष की भावना
से, सूखी और प्रदूषित
मेरी धारा मे निर्लिप्त और निर्विकार भावना से गंगा में डुबकी लगाते देखो, यह है भावना. अतः
भावना ही सर्वोच्च-शक्ति है. इस भावना का दूषित होना ही तुम्हारी समस्त समस्याओं
की जड़ है. तुम जितनी भी परियोजना मुझे नदी समझ कर बनाते हो, कभी भी तुम मेरे
प्रवाह को अमृत-धारा नहीं समझा. अतः मेरे
प्रति तुम्हारी माता-भावना समाप्त हो गयी. इसका परिणाम तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा, तुम कहाँ से हमको
पा सकोगे?