सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत । श्रद्धामयोअ्यं पुरुषो यो यच्छृद्धः स एव सः ।। गीता : 17.3 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
हे भारत ! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उसके अन्तःकरण के अनुरूप होती है. यह पुरुष
श्रद्धामय है. इसलिए जो पुरुष जैसी
श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही
है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
श्रद्धा, गुलाब के फूल के
प्रति उसकी आन्तरिक शक्ति के तहत उससे निस्तारित सुगंध और उसकी बनावट, सजावट व सुन्दरता
है. मनुष्य का स्वभाव उसके द्वारा किए गये कार्य, उसकी कोशिकाओं
की व्यवस्था के तहत, उसके शरीर से निस्तारित
होती रहती शक्ति तरंगों और उससे प्रतिपादित होती कार्यों को सम्बोधित करती हैं. अतः
शक्ति तरंगों का रेखांकन, वातावरण में शांति या अशांति का उद्बोधक है. अतः श्रद्धा
और शांति को उड़ेलने वाला मनुष्य स्वंय ही श्रद्धा का पात्र व शांति स्वरूप है. यही है, भीतर की शांति, कोशिका
सुव्यवस्थित, बाहर की शांति. यही है शांति को
शांति व श्रद्धा का श्रद्धा होना, यह ब्रह्म कहते है.
गंगा कहती है :
मेरे शरीर की आन्तरिक संरचना चाहे हमारे माथे की, महान हिमालय के महान ग्लेशियर की या मेरे मुख मंडल गौमुख की या मेरे गर्दन ऋषिकेश-हरिद्वार क्षेत्र की या मुख्य शरीर ग्रेट-प्लेन ऑफ़ इंडिया की, पत्थर-मिट्टी व इनके चरित्र, गुण, बनावट और सजावट सतहों की व्यवस्था को देखो और समझो. इन्हीं संरचनाओं के तहत मेरा सर्वगुण सम्पन्न भूजल है और इस भूजल से उत्पन्न सतही जल है. हिमालय की फूल-पत्तियों की सजावट सुन्दरता व शक्ति सम्पन्नता मुझसे है. यही मेरे भीतरी गुण, मेरी शक्ति का श्रद्धा से लेने व देने का कारण है. अभी जो कुछ मैं बची हूँ उसका कारण मेरी भीतरी शक्ति है. अतः मुझे श्रद्धावान बनाओ, तुम स्वतः श्रद्धावान विश्वगुरु बन जाओगे.