गंगा नदी : भारत की सांस्कृतिक विरासत
"वह स्थान जहां गंगा नहीं बहती है,बिलकुल ऐसे है जैसे सूरज के बिना आकाश,दीपक की रोशनी के बिना एक घर,और वेदों के बिना एक ब्राह्मण."
भारत यात्रा के दौरान जीन टेवेर्नी ने यह कथन कहा, जो निसंदेह बिलकुल सत्य है.
पवित्र एवं प्राचीन गंगा नदी भारतीय इतिहास का एक अभिन्न अंग है, जिसकी पावन उपस्थिति न केवल भूगर्भीय क्षेत्र अपितु देश के सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र तक भी महसूस की जा सकती है. दक्षिणी हिमालय में गोमुख से उद्गमित होकर गंगा लगभग 2,525 किमी का सफर विभिन्न शहरों में करती हुई वाराणसी में त्रिवेणी संगम में निमग्न हो जाती है.गंगा नदी के किनारों पर अत्यंत मनोरम परिद्रश्य स्थल है, जो वैदिककालीन इतिहास एवं पौराणिक कथाओं में वर्णित किये गये हैं.
भारत में गंगा केवल एक नदी नहीं, अपितु माता स्वरुप में विराजमान है, इसी कारण इसे गंगा माँ या गंगा मैया भी कहा जाता है. भारतीयों की अंतरात्मा गंगा देश की आधी से ज्यादा आबादी को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पेयजल उपलब्ध कृति है, साथ ही कृषि आवश्यकताओं के लिए भी बड़ी जनसंख्या गंगा नदी पर निर्भर है.
लेखिका डायना ऐक अपनी पुस्तक "बनारस : सिटी ऑफ लाइट" में लिखती हैं कि -
"ऐसे कुछ बिंदु है जिन पर भारतीय हिन्दू, विविधता के मामले में पृथक हो सकते हैं, परन्तु बात यदि गंगा की हो तो भारत एक स्वर में ही बोलता प्रतीत होता है. देश का प्रत्येक क्षेत्र जहां से गंगा बहती है, एक विशाल सांस्कृतिक और धार्मिक अर्थ लिए हर सम्प्रदाय को दृढ़ संकल्प के साथ जोड़कर चलती है."
हिंदुओं द्वारा सम्मानित एक पवित्र नदी और पौराणिक कथाओं, कहानियों, गीतों और कविताओं की महिमा, गंगा, भारत का दिल और आत्मा है. स्वाभाविक रूप से हर नागरिक आशा करता है कि इस प्रिय नदी को अपने प्रियजनों के लिए उत्साह और अविरलता के साथ संरक्षित किया जाए. परन्तु आज गंगा स्वयं के स्वरुप के लिए अपने ही लोगों के सामने दयनीयता के साथ मलिन होती दिख रही है.
आज, गंगा को अपने स्वयं के लोगों द्वारा दी गई दिव्य प्रतिष्ठा से खतरा उत्पन्न हो गया है. हर साल लाखों श्रद्धालु संगम, सागर मेला और कुंभ मेला जैसे विभिन्न उत्सवों में भाग लेने के लिए नदी के तट पर एकत्र होते हैं, लोगों के इस सामूहिक एकत्रीकरण का नदी के पारिस्थितिक तंत्र के साथ साथ पर्यावरण पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. पिछले कुछ वर्षों में नदियों की जीवनरेखा माने जाने वाले ग्लेशियर सैकड़ों फीट से कम हो रहे हैं और हिमालय क्षेत्र के औसत हिमपात में गिरावट ने नदियों के जलस्तर में गिरावट दर्ज की गयी है.
कई ग्लेशियोलॉजिस्टों के अनुसार, गंगा नदी की समस्या का एक कारण ग्लेशियरों के पास शिविरों में एकत्रित तीर्थयात्रियों द्वारा जीवाश्म ईंधन का जलाना भी होता है. दुखद पक्ष यह है कि, नदी को अर्पित किया गया सम्मान उन अनुष्ठानों तक ही सीमित है, जहां गंगा माँ पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों के बारे में सोचे विचारे बिना केवल स्वार्थ के वशीभूत होकर परम्पराओं का वहन किया जाता है. उदाहरण के लिए, प्रथा के नाम पर गंगा में मृतकों की राख को विसर्जित करने एवं देवताओं की मूर्तियों के विसर्जन के पीछे एक दिव्य प्रेरणा हो सकती है किन्तु नदी और पर्यावरण पर इसके प्रभाव कहीं अधिक घातक होते हैं.
गंगा बेसिन के साथ भी यही उदासीनता स्पष्ट है, जहां अनुमान लगाया गया है कि लगभग 350 मिलियन लोग नदी तटों पर निवास करते हैं. जैसे-जैसे नदी जल कई कस्बों और शहरों के माध्यम से बहता है, असंशोधित मानव मल, पशु और औद्योगिक कचरे को नदी में बहाया जाता है. कानपुर में, उदाहरण के लिए, आसपास के चमड़े के उद्योगों से क्रोमियम और अन्य हानिकारक रसायनों को अप्रतिबंधित रूप से नदी में बहाए जाते हैं. गंगा बेसिन क्षेत्रों के आसपास भूजल प्रदूषण में वृद्धि साबित करती है कि किस प्रकार कोलेरा जैसी जलजनित बीमारी के मामले लगातार बढ़ रहे है. संकट मोचन फाउंडेशन (एसएमएफ) के अनुसार, जिन्होंने स्वच्छ गंगा के लिए अभियान लॉन्च किया, कई नदी स्नान क्षेत्रों में मलीय कोलिफ़ॉर्म प्रदूषण स्तर मानक स्तर से कहीं अधिक तकरीबन 3,000 गुना पाया गया. विघटित लाशें जिनका उचित रूप से संस्कार नहीं किया जाता है, उन्हें भी नदी में ऐसे ही छोड़ दिया जाता है, जिससे ना केवल पवित्र जल संदूषित होता हैं बल्कि समुद्री और मानव जीवन के लिए भी खतरा उत्पन्न करते हैं.