जिस गंगा ने सगरे तारे,
उस गंगा की खातिर
प्यारे,
हुए समर्पित गंग
बलिदानी,
अमिट रहेगी उनकी
कहानी।
रेती-पत्थर
चुग-खोदकर
मां से करते थे
मनमानी,
देख अति ये
छेड़ाखानी,
मातृ सदन के
शिवानंद ने
दे दी चुनौती इक ऐलानी।
शिष्य निगमानंद तप पर बैठे,
भूख-प्यास सब
सहते देखे,
हिल गई सत्ता,
गई डेरानी,
अस्पताल में रोक
के मारे,
हरिद्वार की कथा
है प्यारे
प्रथम बने
निगमानंद न्यारे,
जिस गंगा ने सगरे तारे...
द्वितीय बखानो
नागनाथ को,
बनारस के श्मशान
घाट को,
बाबा अकेला तप पर
बैठा,
देह सूखकर हो गई
कांटा,
तब भी डटा रहा वह
ठाटा।
कहने को तो संत
बहुत हैं,
कोउ न पूछा,
कोउ न जांचा,
मेरी मां है,
निर्मल चाहिए,
कहता गया वह वीर
लहाटा,
जीवित उसके मर्म
न जाना,
मरने पर अब का जो
बखाना,
रखने को सिर्फ
संकल्प है प्यारेे,
जिस गंगा से सगरे तारे...
गंग गले में देख
के फांसी,
हुआ परेशान इक
सन्यासी,
सानंद नाम,
बड़ा था ज्ञानी,
गुरुदास कहते बड़
विज्ञानी,
बिन अविरलता,
निर्मल कैसे ?
गंग बताओ रहेगी
ऐसे ??
प्रश्न उठाकर खड़ा
हुआ जो
खड़ा रहा अंतिम दम
प्यारे,
एक नहीं, छह-छह व्रत ठाने।
मरी हुई कुछ जगी
संवेदना,
संवेदनशील
क्षेत्र हुआ कुछ घोषित,
कुछ भागीरथी हुई
तब पोषित,
बनी राह कुछ गंग
किनारे,
जिस गंगा ने सगरे तारे...
पर इतना तो नहीं
है काफी,
अविरल गंग प्रवाह
चाहिए,
खनन-मुक्त बहाव
चाहिए,
क़ानून की भी राह
चाहिए,
भक्त परिषद परवाह
चाहिए,
दोषी को दण्ड दाह
चाहिए।
मरण तैयारी देख
डेरानी,
सत्ता ने फिर की
बेईमानी,
ले आई अधिसूचना
मनमानी,
एम्स ले गये,
न लौटाए,
हो गये बलि सानंद
हमारे,
थे गंग के नायक
न्यारे,
जिस गंगा ने सगरे तारे...
गौ की खातिर लड़ने
वाले,
गंग की खातिर आगे
आए,
युवा संत गोपाल
कहाए,
प्राण जाए पर मान
न जाए।
पर हाय, सोया रहा जग बेगाना,
गोपालदास गया
हेराना,
सत्ता का रुख देख
मनमाना,
मातृ सदन ने राह
ने छोड़ी,
साधु-साधु की कड़ियां जोड़ी।
अबोधानन्द बने
उपवासी,
पुण्यानंद बने
फलभाखी,
सत्ता बनी देह की
प्यासी,
हम हैं अविरल गंग
उपवासी,
स्वादु नहीं,
साधु हैं हम,
जितना चाहो,
प्राण हम देंगे,
पर अविरल गंगा
शान से लेंगे।
बंधी हुई है
मुट्ठी देखो,
सच होगा यह नारा
प्यारे,
जिस गंगा ने सगरे तारे...
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