MMITGM: 22
भगवान शिव से - हे भोलेनाथ! भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं (गीता-2.22) जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्याग कर नवीन भौतिक शरीर धारण करता है. चूंकि बच्चा और जवान भी मरता है इसलिए यह पुराना तथा व्यर्थ का शरीर क्या है? आत्मा जब आपका ही अंश है और आप के साथ, बगल में रहता है, तब इसकी व्यग्रता का कारण क्या है और यह क्यों शरीर धारण करता व त्यागता है? जो दिखाई देता है और जिसकी अनुभूति हर क्षण होती है, वह यह है कि शरीर की समस्त कोशिकायें निरंतरता से अपने-अपने कम्पनों की आवृत्ति-आयाम आदि को बदलते भीतरी शक्ति को किसी खास केन्द्र से बाहर निस्तरित करती रहती है. इन शक्ति-तरंगों के रिजल्टेन्ट ही बाहर के कार्य का कारण होता है. इसी तरह शरीर के उद्देश्य के एक विशेष मौलिक कार्य पूर्व निर्धारित हो कर ही अवतरित होता है जो कम समय में निस्तरित होता है और शरीर किसी का भी बच्चे-जवान-बूढ़े का हो सकता है. इन समस्त शरीरों को, उद्देश्य पूर्ति के उपरांत जीर्ण ही कहा जायेगा। किस मौलिक कार्य के लिये यह शरीर मिला है यह स्वतः होते रहने वाली, स्वभाव रूप से, शक्ति-प्रवाह परिलक्षित करते प्रतिष्ठित करती रहती है. यही है एक बच्चे के शरीर को भी, उसके किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के उपरांत, जीर्ण हो जाना, किसी खास कार्य से बने नये कपडे का कार्य के बाद जीर्ण हो जाना. हे भोलेनाथ! इस कपकपाते शरीर से निस्तरित होती शक्ति तरंगों की कब, किस क्षण उद्देश्य की पूर्ति होगी और इनका परिणामी बल आत्मा को किस नवीन शरीर में ले जायेगा, यह आप की कृपा पर निर्भर करता है.
MMITGM : (23)
भगवान शिव से - हे भोलेनाथ! भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं..
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैवं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूतः।। (गीता-2.23)
यानि आत्मा को न तो कभी किसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड किया जा सकता है, न अग्नि द्वारा जलाया जा सकता है, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है. इसका क्या अर्थ है? समझ में नहीं आ रहा है. शस्त्र द्वारा काटने पर, आग से शरीर को जलाने पर, पानी में डुबोकर और वायु द्वारा शरीर को सुखाकर आत्मा को नष्ट किया जा सकता है, ऐसा लोग समझते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण के कहने का क्या अर्थ? हे भोलेनाथ! आप समझाइए। आप कहते हैं, आत्मा का आकार-प्रकार नहीं होता, मान लिया. उसकी जगह भीतर हदय में होता अर्थात शरीर के केंद्र में होता, उसके ऊपर कोशिका की व्यवस्था से बुद्धि होती है, उसके ऊपर अव्यवस्थित कोशिका की तरंग मन के स्तर को परिभाषित करती है, उसके ऊपर इन्द्रियाँ होती है. शरीर को काटने, जलाने, भिगोने, सुखाने आदि से विभिन्न स्तरों में कोशिका की सजावट बदलती है, इस सजावट से अदृश्य-पोल का स्वरूप वदलता है, जैसे चुम्बक का पोल, मौलिकुलर व्यवस्था से बदलता, वह नष्ट नहीं होता क्या भोलेनाथ! आत्मा, शरीर कोशिका की निश्चित व्यवस्था के तहत अविनाशी पोल स्वरूप है जिसे शस्त्र, आग, जल और वायु किसी रूप से नष्ट नहीं कर सकता, सिर्फ कोशिका व्यवस्था के बदलने से रूपांतरित होता है, ऐसा लगता है. क्या यह मधुमक्खी के झुंड में, रानी-मधुमक्खी की तरह, कोशिकाओं के झुंड में एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विशिष्ट कोशिका तो नहीं है.