प्रकृति ने ही गंगा और मानव दोनों की संरचना की है. ये अनन्त आकाश के सूक्ष्म अंशों द्वारा प्रतिष्ठित शरीर के रूप में दृश्यावलोकित होते हैं. ये एक ही वातावरण में अवस्थित रहते हैं, जहाँ सूर्य की बदलती किरणें इन दोनों को भी बदलती रहती है. इनके अस्तित्व का आधारभूत अवयव जल ही है. गंगा का जल, गंगा-जल, पानी आदि कहलाता है. मानव शरीर का जल, रक्त, प्रोटोप्लाज्म आदि नामों से जाना जाता है. इनके शरीरों का जल अलग-अलग बर्तनों में कर देने से ये गंगा और मानव को सम्बोधित नहीं कर सकते. अतः जल, जब शरीर के भीतर होता है तो शरीर का बोध कराता है और जब यह शरीर के बाहर होता, तो मात्र जल का अतः गंगा शरीर से ही मानव की भाँति अपने आप को प्रतिष्ठित करती है.
मानव शरीर प्रकृति प्रदत्त मिट्टी के विभिन्न रासायनिक अवयवों से बना है. गंगा-शरीर का आधार भी मिट्टी ही है, इन दोनों शरीरों के भीतरी सूक्ष्म भागों के ऊपर, नीचे तथा भीतर जल है. मिट्टी के रासायनिक अवयव जल में तथा जल के मिट्टी में प्रसारित होते रहते हैं.
मानव-शरीर में सत्तर प्रतिशत से ज्यादा जल सदा प्रवाहित होता रहता है. इसके रासायनिक अवयव एवं गति, स्थान और समय से बदलते रहते हैं. उसी तरह गंगा-जल की मात्रा गंगा शरीर में बहुत अधिक प्रतिशत (जिसका आकलन करना कठिन है) में सदा प्रवाहित होता रहता है. इस जल के रासायनिक अवयव एवं वेग समय और स्थान से निरंतर बदलते रहते हैं.
भोजन और जल की आपूर्ति मानव शरीर में मुख्यत: बाहर के निर्धारित आस-पास के क्षेत्र से होती रहती है. ज्यों-ज्यों मानव बढ़ता है, उसकी जरूरतें बढ़ती जाती है और उसके दोस्त/सम्बन्धी बढ़ते जाते हैं. इससे मानव का आपूर्ति क्षेत्र बढ़ता जाता है. इसी तरह गंगा शरीर में मिट्टी और जल आने का परिभाषित भूमि "नदी जल संग्रहण क्षेत्र" "बेसिन" नाम से जाना जाता है, गंगा ज्यों-ज्यों आगे बढती जाती है. इसका आपूर्ति-क्षेत्र अर्थात बेसिन बढ़ता जाता है. अतः गंगा से मिलने वाली अन्य नदियां गंगा की जो सहायक नदियां कही जाती है. उसका बेसिन भी गंगा का ही बेसिन हो जाता है.
मानव-शरीर के रासायनिक अवयव एवं जल शरीर के भीतर पहुँचने वाले भोजन और जल के गुण एवं मात्रा से बदलते रहते हैं. शरीर का क्रिया-कलाप बदलता रहता है तथा शरीर से निकलने वाले विकार बदलते रहते हैं. इसी तरह गंगा-शरीर की मिट्टी और जल के गुण बाहर से आनेवाले मिट्टी और जल के गुण एवं मात्रा से बदलते रहते हैं. नदी का बहाव बदलता रहता है तथा नदी का अवसाद परिवर्तित होता रहता है. अतः दोनों शरीर में सतत विकास तब होता है जब बाहर से आने वाले तथा बाहर जाने वाले पदार्थों एवं शक्तियों में संतुलन सम्मिलित रूप से होते रहते हैं, इसे ही "सतविकास" कहते हैं.
मानव-शरीर वातावरण से संतुलन स्थापित करता है. उसके भोजन, जल, कपड़ा आदि स्थान और समय से बदलते रहते हैं. इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति मानो शरीर-रूपी परमाणु के भीतरी एवं बाहरी आवरणों को बदलते हुए इसके क्रिया-कलापों को बदल रही हो. इसके तहत कोशिका का क्रिया-कलाप बदलता है तथा उसके भीतर के प्रोटोप्लाज्म आदि भी बदलते हैं. उसी तरह गंगा प्रकृति से संतुलन स्थापित करती है. उसके शरीर की मिट्टी और जल स्थान और समय से बदलते रहते हैं. इससे बाहरी एवं भीतरी क्रिया-कलाप बदल जाता है तथा जल-जीव बदल जाते हैं. यह कार्य सतही एवं भूमिगत जल द्वारा मुख्य रूप से होता है. इसमें निरंतर प्रवाहित होने वाला भूमिगत जल हमारे शरीर के प्रोटोप्लाज्म जैसा काम करता है. (MMITGM : 10)