न च मत्स्थानि भूतानि पश्य में योगमैश्वरम् ।। भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ।। गीता : 9.5 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
ये सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किन्तु मेरी ईश्वरीय योग शक्ति को देख कर भूतों का धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाली मेरी आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अलग-अलग आणविक-संरचणा एटॉमिक और मास नम्बर से भिन्नता रख कर एक निश्चित बाउन्ड्री-कंडीशन में प्रतिक्रिया कर के जल बनाते हैं. वास्तविकता तो यह है कि न तो हाइड्रोजन में ऑक्सीजन है और न ऑक्सीजन में हाइड्रोजन. यह बांधने की शक्ति प्रकृति की पारिस्थितिकी स्थिति है, यही है जीवात्मा प्रकृति परमात्मा से जीव-जगत की सम्पूर्ण क्रियाशीलता के चक्र का चक्रमन होना. यह है सूक्ष्म से वृहत सृजन की प्रणाली का भाग. न सूर्य में तुम और न तुम में सूर्य दोनों ही अलग-अलग रहते हैं. तथा सृष्टि की समस्त क्रियाकलाप का निर्वहन करते हैं. यही है ईश्वरीय योगशक्ति से भूतों का धारण पोषण, उत्पन्न तथा भूत से अलग रहते गये परब्रह्म से जगत निर्माण का करना.
गंगा कहती है :
मानों हमारे बेसिन तक के समस्त जीव हममें स्थित नहीं है, वे सब अलग-अलग हैं और मेरा अस्तित्व अलग है. ऐसी स्थिति में अनंन्त तरहों के असंख्य भूतों की उत्पत्ति-धारण और पोषण हमारी अध्यक्षता की वातावरणीय परिस्थितियों में ही संभव है, इसका कारण है कि पदार्थीय और शक्ति-प्रवाह हमसे परिभाषित संचालित और नियंत्रित एक सिद्धान्त के तहत होती है, यही सिद्धान्त है “जीव-प्रकृति” और ब्रह्म का और यही है जीव उत्पत्ति का आधारभूत सिद्धान्त. जीव-प्रकृति पुरुष-खेल, यह संतुलंता मुझ में विलक्षण थी, इसी कारण मेरे जल-जीव सहित अन्य जीवों की मात्रा और गुण में विल्क्षणतायें थी. इसे कैसे पुनःस्थापित किया जाये और इस जटिल-प्रश्न का समाधान हो पाना असंभव दिखाई देता है.