अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ।। गीता : 16.2 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
मन, वाणी और शरीर
से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उत्पत्ति अर्थात् चित्त की चंचलता का अभाव किसी की भी निन्दादि न करना. सब भूत प्राणियों में दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति
का न होना. कोमलता, लोक और शास्त्र से
विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
मन, वाणी व शरीर
से किसी प्रकार का भी किसी को कष्ट न देना. शरीर के कम्पनावस्था को बढ़ाते, कोशिकाओं को
निचोड़ते, रक्त-संचार को
बढ़ाते, शक्ति-प्रवाह के निस्तारण को रोकना ही शक्ति-संचयन है. इसी
तरह यथार्थ और प्रिय
भाषण अपकार करने वालों
पर क्रोध नहीं करना, कर्तापन के अभिमान का त्याग, चंचलता का अभाव, किसी की निन्दा नहीं करना आदि कोशिकाओं की कपकपाहट को रोकने तथा उसे नियंत्रित करना ही शक्ति-संचय
करने की तकनीक है. यही है, शक्ति-बचाने का
अभ्यास होते-होते समस्त भूत-प्राणियों में दया भाव का कोमल-मृदुल व्यवहार के
आचरण में उतर आना तथा लोक और शास्त्र के व्यवहार को अंगीभूत कर लेना.
गंगा कहती है :
मन, वाणी व शरीर
से यदि शक्ति का
प्रवाह ऐसे हो, जो वातावरणीय-तारंगिक-सीमाओं
को “ग्राउण्ड-स्टेट-वाइव्रेशन” के नजदीक स्थापित
करे तो ये शांति प्रदायक
होता है. यही है प्रकृति के साथ ताली बजाना. यही था, पुराने-जमाने का सेप्टिक-टैंक, यही है करोड़ों लोगों के मल-जल-व्यवस्था की
स्थायी और एकमात्र तकनीक. प्रयागराज कुम्भ
में बालू क्षेत्र की शक्ति का शक्ति प्रदर्शन. प्रकृतस्थ मानव के इस अनादि काल की
जटिल समस्या की सरल तकनीक को सर्वत्र अंगीकृत नहीं करना मूढ़जन्य है. यही है “तीन-ढ़लान का
सिद्धांत”. यही है प्रकृतस्थ होना, बाढ़, मृदा-क्षरण-मियैन्ड्रींग, प्रदूषण आदि का नदियों
की शक्ति से तालमेल, रिजोनेन्श
स्थापित करना. यही है, लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ
चेष्टाओं का अभाव और यही है प्रकृतस्थ होना, मुस्कुराते, आनंदित होते गंगा
की शक्ति को समझते इसे विनम्रता से संरक्षित करना.