“रजसि प्रलयं गत्वा कर्मससंगिषु जायते । तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते ।। गीता : 14.15”
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
रजोगुण के बढ़ने पर मृत्व को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा तमों गुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य, कीट, पशु आदि मूढ योनियों में उत्पन्न होता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
कर्मो की आसक्ति, आवेशित शक्ति तरंगों के बाह्यमुखी होने को और कोशिकाओं को विशेष रूप से कंपनावस्था को इंगित करता है. तरंग का यह चरित्र धारण होने वाले किसी खास चरित्र के ही शरीर को इंगित करेगा. जहाँ, जिस आकार-प्रकार-गुण के शरीर में, रजो-तमों के अन्तिम प्राप्त स्तर की पूर्ति हो सके. यही है उस समय की मृत्वु, उद्विग्न अवस्था से शरीर छोड़ना तो उसी की तुष्टि की अवस्था स्थिति की शरीर को प्राप्त करता है.
गंगा कहती है...
हमारे प्रति जिस भावना को लेकर तुम मरोगे वैसा ही जन्म प्राप्त करोगे. मानलो कि तुम डैम बनबा रहे हो और तुम्हारी मृत्यु हो गयी तो संभव है कि तुम एक ठेकेदार के घर पैदा हो सकते हो. इसी तरह यदि कोई महा-काम-क्रोध की स्थिति में मरता है तो वह बाघ, गधा, कुत्ता आदि जानवर हो सकता है. अतः तुम्हारे मरने के समय की मानसिक स्थिति तुम्हारे जन्म का स्थान, रूप-रंग क्रिया-कलाप आदि तुम्हारे होने वाले शरीर की व्याख्या करता है और अन्तकाल तुममें वही भावना आती है, जिसका तुम जीवन में अभ्यास करते हो. अत: तुम्हारा चरित्र ही तुम्हारा अगला जन्म है.