कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्। रजसस्तु फलं दुःखमग्यानं तमसः फलम् ।। गीता : 14.16 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
पुण्यकर्म का फल शुद्ध होता है और सात्त्विक कहलाता है, किन्तु रजोगुण में सम्पन्न कर्म का फल दुःख होता है और तमोगुण
में किये गये कर्म मूर्खता से प्रतिफलित होते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
सुख, आत्मबल के बढ़ने को, थड़थड़ाहट के कम
होने को शांति-प्राप्ति करना कहते हैं. यही है शक्ति का अपव्यय नहीं करना और यह तभी संभव होगा
जब हम आत्मा को जानेंगे और यह अभ्यास करेंगें कि मैं भीतर में ही केन्द्रस्त
हूँ और मेरे साथ निर्लीप्त सर्व शक्तिमान
परमात्मा है. “मैं अकेला नहीं हूँ” का कनसेप्ट और जो दूसरा मेरे साथ है, “वही सब कुछ है”,
की दृढ अवधारणा, ज्ञान है. उसको भीतर में ही
होना, का अर्थ है कि बाहर की प्रत्येक बस्तु निरर्थक है.
इस अवधारणा का नहीं होना बाहर शक्ति की प्रवाह करते रहना ही, रजोगुणी होना, दुःख
भोगना है और इस अवधारणा की निरंतरता से बना रहना ही तामस कर्म का फल है.
गंगा कहती है :
सुख, गति की
स्थिरावस्था का ज्ञान, कोशिका का
रेखांकीकरण, वैराग्य और पदार्थीय त्याग सभी गुण के रक्षक,
सत्त्व गुण हैं. वह सभी उपाय जिनसे ये कम हो, लोभ आदि तो ये
राजसी और जिनसे ये विनष्ट हों तामसी गुण कहलाता है. एक वाक्य में यह कहा जा सकता
है कि वह समस्त कार्य जिनसे मृदाभार नहीं बढ़े, यथा माइक्रो-डैम (
5-10 मी. ऊंचाई तक) सात्विक कार्य है. जिनसे मृदाभार मध्यम रूप से बढ़े, यथा डैम (50-60 मी. ऊंचाई तक) वह
राजसी-बाँध-कार्य है और इनसे भी ऊंचा डैम, जो तीव्रता से भूस्खलन करे वह तामसी-बाँध-कार्य हैं.
स्मरण रखो :
हिमालय जैसा सेडीमेंट्री-लूज-तीक्ष्ण-ढ़ाल का पहाड़, माइक्रो-डैम, 5-20 मी. की ऊंचाई तक के लिये ही
उपयुक्त है.