ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थाणि कर्षति।।गीता : 15.7।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
इस देह में यह सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही इन प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों से प्रकृति में स्थित पदार्थों को आकर्षित करती रहती है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
आँख, नाक, कान, जिह्वा और लिंग की अलग-अलग बनावट के तहत अलग-अलग शक्तियाँ हैं और इन शक्तियों के तहत समयानुकूल अलग-अलग कार्य, शक्ति-तरंगे निस्तारित और अवशोषित इसलिए होती रहती हैं क्योंकि इन इन्द्रियों की कोशिकाएं अलग-अलग रूप से व्यवस्थित रहती हैं. इन इन्द्रियों के अतिरिक्त मन का उच्च स्तरीय कम्पन्न एक अलग समस्या है, जो इन्द्रियों के साथ हां में हां मिलाने वाली, आग में घी डालने वाली हो जाती है. यही है मन-इन्द्रियों की आकर्षण शक्तियों के तहत, सम्मिलित ज्वाला, जिससे जीवात्मा निरंतरता से झुलसती रहती है.
गंगा कहती है :
जिस तरह, मानव-सहित विभिन्न जीवों के शरीर की विभिन्न इन्द्रियों के आकार-प्रकार बदलते
रहते हैं और उनके तहत इनके कार्य भी बदलते हैं, उसी तरह, मेरे विभिन्न अंग, सर, मुख मेरे
बेसिन, फ्लडप्लेन, बैंक, बेड आदि के आकार-प्रकार और क्रिया-कलाप स्थान और समय से
रूपांतरित होते चलते हैं. यही कारण है कि मेरे मन रूपी टरबूलेन्ट एनर्जी, फ्लकचूयेटींग-कमपोनेन्ट
ऑफ एनर्जी बदलते रहते हैं. यही है, बाढ़, मियैन्ड्रींग, प्रदूषण, कटाव, जमाव आदि समस्याओं का भी समय समय पर बदलते
रहना.
सुनो नदियों की करुण पुकार :
ये नदियाँ मानव से कहती हैं कि तुम्हारे
इस शरीर से बँधा हुआ, सनातन जीवात्मा यानि
प्राण, ब्रह्म का ही अंश है. तुम्हारे
आँख, नाक, कान, जिह्वा, लिंग और मन प्रकृति से जीव-निर्जीव पदार्थ आकर्षण-विकर्षण
से प्रभावित होते हैं तथा शरीर को विशेष रूप से कम्पायमान रखते हैं. इन्हीं 6 शक्तियों के असंख्य
समूहों की असंतुलित और अनियंत्रित शक्तियों, इच्छाओं के तहत, नियम-बद्धता के
अभाव में इन चैतन्यमयी नदियों का दोहन और शोषण होता रहता है, फिर भी, इनमें से अधिकांशत:
अपने लक्ष्यों को विस्मृत नहीं पाती हैं. कुछ बेहोश हो चुकी हैं और कुछ दमतोड़ चुकी
है. उठो, जागो ! क्यों तंद्रा
में डूबे हुए हो, इन्हें प्रणामकर,
इन्हें जागृति प्रदान करो. ये बेहोश माताएं तुम्हारी भावी संतान की रक्षिका हैं.
इन्हें मिटने मत दो, इनमें जीवंतता का
संचार करो और इन्हें संरक्षित करो.