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गंगा नदी और गीता - गंगा कहती है – तुम्हारे भावना, उद्देश्य, कर्तव्य, कर्मों में हो उचित समन्वय : अध्याय 14, श्लोक 23 (गीता:23)

  • By
  • U.K. Choudhary
  • October-23-2018
उदासीनवदासीनो गुणैर्यों न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येव योअवतिष्ठति नेंगते ।। गीता : 14.23 ।।

श्लोक का हिन्दी अर्थ :

“जो साक्षी के सदृश स्थित हुए गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते हैं”- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानंदन परमात्मा में एकभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता है.

श्लोक की वैज्ञानिकता :

भारत की अथाह संस्कृति की अनूभूति लो. साक्षी, गवाही देखने वाला, प्रतिक्रिया नहीं करने वाला, शक्ति अवशोषित तो होती है परंतु प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं होती है. कोशिका अपने स्वरूप तो बदलती है परंतु अपने पूर्व स्थान पर लौटती नहीं है. यह सर्व-साधारण शक्ति-संचालन की व्याख्या है, परन्तु यदि न्यूकलियस परम्-संवेदनशील है, जो शक्ति-तरंगें कोशिका द्वारा अवशोषित हुई है, उसे न्यूकलियस द्वारा अधिग्रहित कर लिया गया तो कोशिका स्वतंत्र होकर अपने पूर्व स्थान को लौट आती है. यही स्थिति होती है, उस तत्वज्ञान रखने वालों की, जिन्होंने न्यूकलियस में परब्रह्म परमात्मा को स्थापित कर लिया है और सत्व-रज-तम तरंगों को देखता तो है, परन्तु उन्हें न्यूकलियस को समर्पित कर देता है, यही है उस ध्यानी की निर्लिप्तता, यही है भारत की संस्कृति, हर एक घर में धर्म का अवलंबन, कितना भी कष्ट हो..उसकी कृपा ही समझते रहना और उसकी पूजा को नहीं छोड़ना. भारतीयों की सभ्यता और आचरण में, यही ऋषियों और महात्माओं द्वारा प्रदत्त संस्कार स्वरूप विद्यमान है, इसलिये यहाँ के लोग ज्यादा विनम्र होते हैं.

गंगा कहती है :

अभी तक मैं जितना भी संरक्षित हूँ, वह भारतवासियों के मौलिक संस्कार, शास्त्रों द्वारा प्रदत्त और संरक्षित नैतिक मूल्य है. तुम नदी- तकनीक के दृष्टिकोण से अत्यन्त कमजोर हो, इसके संतुलन-सिद्धान्त को, जगह और समय से, व्यवस्थित करना नहीं जानते. तुमने गंगा के बेसिन के चारित्रिक गुण, समतलता, एक्विफायर की गहराई, मिट्टी की संरचना, इसकी भू-जल ग्रहण अवशोषण निस्तारण क्षमता और इसके माइक्रोबियल पोटैन्शियल इत्यादि को नहीं जानते हैं. अकेला गंगा-बेसिन विश्व के लोगों को भोजन करा सकता है और संसार के लोगों को अपने जल से स्वस्थ्य रख सकता है. तुम गंगा का प्रबंधन करने के लिये “गंगा-मंत्रालय” बनाकर महानता का परिचय तो अवश्य देते हो, परंतु इसके कार्य क्षेत्र को परिभाषित और संवर्धित करना है. अभी जिन-जिन कार्यों को तुम कर रहे हो, उनकी उस तरह की पारिस्थितिकी नहीं है. यही है भावना उद्देश्य कर्तव्य कर्मों के समन्वय का नहीं होना.

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