न रूपमस्येह तथोप-लभ्यते नान्तो न चादिर्ण च सम्प्रतिष्ठा। अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसंगशस्त्रेण दृढेन छित्वा।। ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः। तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत्त प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी।। गीता : अध्याय-15, श्लोक - 3-4
श्लोकों का हिन्दी अर्थ :
इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता है. कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि , अन्त या आधार कहाँ हैं? किन्तु मनुष्य को चाहिये कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराये. तत्पश्चात उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिये, जँहा जाकर लौटना न पड़े और जँहा उस भगवान की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादिकाल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात एवं विस्तार होता आया है.
श्लोकों की वैज्ञानिकता :
“इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस संसार में नहीं किया जा सकता”, शरीर, वृक्ष, कोशिकाओं से निर्मित और इनके विभिन्न तारंगिक-चरित्रों, यथा आवृतियों, आयामों, समूहों, रूपांतरण-कोणों आदि से शक्तियों को निस्तारित और अवशोषित करते अपने स्वरूप को स्थायित्व के साथ रूपांतरित करती रहती है और कभी भी अपनें मौलिक स्वरूप में नहीं लौटती है. इस तरह किसी न किसी रूप से कार्य निरंतर होते रहते है और कोशिका के रूपांतरण से शक्तिसंचय, स्मरण शक्ति या इच्छा के रूप में होता रहता है. इसका नहीं होना या इसको नहीं करना, कोशिका को जस का तस रख देना “शत-प्रतिशत” त्याग कहलाता है. यही योग है, यही है रैदास की “चदरिया जस के तस धर दीन्हीं” वाला भाव, यह तभी संभव है, जब अंतर्मन में हनुमानजी सदृश्य, इष्टदेव न्यूकलियस को दृढता से समस्त तरंगों के उत्पन्न और विसर्जन का केन्द्र समझा जाए. यही है दिन-रात कार्य करना परन्तु कार्य से फल की इच्छा नहीं करना. यही है, हाथ में हमेशा लड्डू रखना, निरंतर प्रसन्नता से परिपूर्ण रहना, हृदयस्थल में ब्रह्म का होना. This justifies that all waves originate from and merges into a point inside the Heart, the Nucleus. यही है, “कहाँ भटकते हो, ब्रह्माण्ड का खजाना तुम्हारे पास ही है.”
गंगा कहती है :
अपने आप को पहचानने जैसा, तुम्हें पदार्थ नहीं, मुझे पहचानना है. मैं जलरूप शक्ति हूँ, जिसके बिना तुम एक क्षण भी नहीं रह सकते हो और मल-त्याग वह शक्ति-संचय है, जिसके बिना भी तुम नहीं रह सकते. ये दोनों मेरे शरीर से और मेरे शरीर में ही जाते हैं. अतः मेरे शरीर का भाग ही तुम्हारा शरीर है. जल और मल, इन दोनों का कहाँ, कितना और कैसे, मेरे शरीर में संतुलन रखा जाए, इसे समझना होगा. अतः दोनों को एक ही दृष्टि से समझना ही होगा. यह मेरी ही व्यवस्था मात्र नहीं अपितु वातावरण की तथा तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य की व्यवस्था है. यह समझ लो कि “नदी के जलगुण जलमात्रा - तुम्हारा स्वास्थ्य, संस्कार और संस्कृति सभी एक साथ चलता है.” ये सभी भीतर की शक्तियाँ हैं, यही तुम्हें यहाँ और वहाँ के लिये चाहिए. ये शक्तियाँ, विश्व में मात्र तुम्हारे पास मुझसे है और अन्यत्र यह किसी के पास नहीं है. इस गंगा की शक्ति को तुम नहीं समझते और सोचते हो. STP, समस्या का निदान करेगा, यह मात्र तुम्हारा भ्रम है. बालू से विरक्ति, यही गंगा-संरक्षण की शक्ति है. जब तक इसका उपयोग नहीं करोगें, तब तक हजारों और लाखों STP गंगा की समस्या का निदान नहीं कर सकते हैं. अतः वैराग्य रूप ज्ञान से, गंगा को संरक्षित करो, तब तुम यहाँ इस जग में और वहाँ, ब्रह्मलोक में सर्वत्र पूज्यनीय होगे.