यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्। यतन्तोअ्ष्यकृतात्मानां नैनं पश्यन्त्यचेतसः।। गीता : 15.11।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त करने के प्रयत्नशील योगीजन आत्मा को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, लेकिन जिन्होंने “इन्द्री-मन” को नियंत्रित नहीं किया है, ऐसा अज्ञानीजन यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा को नहीं जानता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
पाँच इन्द्रियाँ, शरीर में पाँच दिशाओं से आने वाली शक्ति-प्रवाहों को अवशोषित करने वाली विभिन्न आकार-प्रकार के विशिष्ट छिद्र हैं. यह मानो निरंतरता से पाँच-छेद वाले बर्तन मे भरते हुए पानी को खाली होते रखने के लिये हैं. यह काँपते हुए बर्तन को विशेष रूप से कंपकपाता रहता है. इन छेदों को बंद करना, बर्तन में जल को भरना, इसे स्थैतिक-ऊर्जा प्रदान करना शांति-प्रदायक है. अतः छिद्र जल नहीं है. उद्देश्य तो मात्र जल संरक्षण का है, यही बर्तन में जल और शरीर में आत्मा को देखते हुए इन्द्रियों-छिद्रों और मन की कंपकपाहट को नियंत्रित करना है. यही है स्वरूप-सिद्धि, जो जिस कार्य के लिये है, उस कार्य का होना. “मैं आत्मा हूँ, मुझे इन्द्री और मन से क्या मतलब”, यही है आत्म-ज्ञान स्वरूप सिद्धि का रास्ता. यही आत्म-दर्शन की तकनीक है और यही है ब्रह्म के शरीर में रहने की, उसकी शक्ति की अनुभूति प्राप्त करना.
गंगा कहती है :
मेरे साक्षात स्वरूप के दर्शन की प्रबल-अभिलाषा से अपना आत्म-दर्शन, स्वरूप सिद्धि, अपने आपको देखना, अपने आपको विभिन्न अवरोधों से अलग करना एवं यह आसानी से प्राप्त हो जाता है. जिनका उद्देश्य मुझे अवशोषित करने का है, हमसे धन उपार्जन करने का, हमें संरक्षित करने का नहीं है, वह हमें कभी नहीं समझ सकता है. हमारा दर्शन, हमारी स्वरूप-सिद्धि, हमारे स्वरूप, फिजियोलोजी और गुण एनाटॉमी आदि को संरक्षित करना है. यही है “हमारे शरीर और गुण को परिभाषित करना” और स्वरूप में स्थिरता लाना, इसकी रक्षा करना, स्वरूप सिद्धि, आत्म-दर्शन प्राप्त करना है. यह मेरे लिये कोई नहीं सोचता. मेरा स्वरूप संरक्षण, मेरे शरीर की सीमा आज तक परिभाषित नहीं की जा सकी. 1980 के दशक में सुप्रीम-कोर्ट को गंगा के सीमांकन के लिये यू.के.चौधरी ने लिखा, तो SC नें 200 मी. अंदाज से किनारे से गंगा की सीमा निर्धारित कर दी. यह अधूरा-निर्णय है, यह निर्णय नदोत्तर और उन्न्दोत्तर किनारे के हिसाब से होने की आवश्यकता है. अतः देश की समस्त नदियों के स्थायी सीमांकन की आवश्यकता है. इसके लिये अध्यादेश लाने की आवश्यकता है. इसी तरह जलगुण का स्वरूप क्या हो, इसे निर्धारित करनें की आवश्यकता है. यही होगी, “नदी की स्वरूप सिद्धि को प्राप्त करना, इसे तुम तब-तक नहीं कर सकते, जब-तक तुम इन्द्री-मन, स्वार्थ-सिद्धि के चक्कर में हो.”