न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः। यद्गत्वा निर्वतन्ते तद्भाम परमं मम। गीता : 15.6।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसार में नहीं आते हैं, उस स्वयंप्रकाश परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न ही अग्नि. वही मेरा परमधाम है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
“परमपद”, वह पद, स्थान, बिन्दु, कण है, जो कम्पन्न नहीं करते. कम्पन्न, आगे-पीछे करने वाली स्थिति बदलने को कहते हैं अर्थात जसका तस रहने वाला ही परमपद को प्राप्त करने वाला कहलाता है. यह सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण एटम के न्यूकलियस मे अवस्थित “न्यूट्रॉन” ही है. अतः जो न्यूट्रॉन की स्थिति में हो अर्थात जो 100% अन्तस्थल में विराजमान हो. “परमपद” : इस न्यूट्रॉन को सूर्य, चन्द्र, अग्नि किसी तरह के प्रकाश शक्ति की आवश्यकता नहीं है. यह तो स्वयं में “गामा-रे” निस्तारित करने की क्षमता रखता है. जो मनुष्य इस शांति को प्राप्त कर लेगा, वह इस कम्पायमान संसार में क्यों आना चाहेगा? यही है, ब्रह्म का परमधाम.
गंगा कहती है :
मेरा-जन्म, परमपद को देने के लिये, तपस्वी जनों का उद्धार करने के लिये, भारत-भूमि को पवित्र करने के लिये, इसे विभिन्न शक्तियों से सम्पन्न करने के लिए, इसे विश्व का केन्द्र बनाने के लिये हुआ है. यही कारण मेरे जल का मेडिसिनल-चरित्र का होना है. पहले भीतरी-मजबूती, जल में ऑक्सीजन की प्रचूरता, पैथोजन्स को विनष्ट करने की विशिष्ट-क्षमता, वातावरणीय संतुलितता, संस्कृति और संस्कार की जागृति के साथ धन-धान्य की सम्पन्नता निहित है. यही है मेरा मौलिक-कार्य, तुम्हें “अर्थ-धर्म-काम और मोक्ष” प्रदान करना. यही है मेरा कार्य, भारत को ही परमधाम बनाना और यहाँ के लोगों को ज्ञानी, ध्यानी, सत्यपथगामी बनाते हुए परमपद को देना. मेरे कारण ही, हरिश्चंद्र, राम, कृष्ण और एक से बढ़कर एक ब्रह्म ज्ञानी यहाँ अवतरित हुए हैं. अतः मुझे सम्पूर्णता से समृद्ध बनाते हुए भारत को मेरा परमधाम बनाओ.