द्वाविमों पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वानि भूतानि कूटस्थोअ्क्षर उच्यते ।। गीता : 15.16।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
इस संसार में
नाशवान और अविनाशी, ये दो प्रकार के पुरुष हैं. इसमें सम्पूर्ण भूतप्राणियों के शरीर तो नाशवान और
जीवात्मा को अविनाशी कहा जाता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
शरीर दिखाई देता है, स्पर्श किया जाता है तथा स्थान घेरता है, इसलिये यह पदार्थ है और निरंतरता से इस पदार्थ में काँपते हुए परिवर्तन आता रहता है, इसलिये इससे शक्ति निकलती और इसमें शक्ति जाती रहती है. इसमें विभिन्न तरहों के इन्द्री-मन कार्य होते रहते हैं और यह नियमबद्ध होता रहता है. अतः शरीर के भीतर पाँच इन्द्री-स्वादो की बदलती तरंगों, इनकी आवृत्ति और आयामों के अन्तः एवं बाह्य-प्रवाह का शक्ति-केन्द्र है. चूंकि शक्ति का नाश नहीं हो सकता है, इसका मात्र रूपान्तरण संभव है, इसलिये यह पाँच इन्द्री-स्वादों के विभिन्न आवृति-आयामों का रूप एवं मन का शक्तिकेन्द्र, सूक्ष्म शरीर ही रह जाता है. यही संकलित कार्य-शक्ति का सूक्ष्म शरीर वृहत शरीर प्राप्त कर जन्म लेता है. यही है “जीवन-चक्र”.
गंगा कहती है :
तुम्हारा पूजा-पाठ, जप-तप, योग-ध्यान, ये समस्त आराधनायें भगवान के सूक्ष्म-शरीर को अपने सूक्ष्म शरीर से पाँच इन्द्रियों से संबंधित गंध, धूप, दीप, फल, फूल, मिष्ठान, इत्र आदि चढ़ाते हो और मन को घंटी बजाकर नियंत्रित कर अपने को सूक्ष्म करते हुए भगवान के सूक्ष्म शरीर से मिलाते हो. यही है पूजा-अराधना. इसी तरह तुम हमसे सूक्ष्म-से-सूक्ष्म रूप से मिलो. एक बार में तुम अपना कितना प्रतिशत रक्त किसी को दे सकते हो? हमारा जल-दोहन तुम किस ज्ञान और तकनीक से 95% भीमगोडा पर और 100% नरौरा पर कर रहे हो? इसी तरह दवा रूप से प्वाइजन का इन्जेक्शन तुम्हें कहाँ और किस विधि से दिया जाता? हमारे लिये प्वाइजन-इन्जेक्शन की तुम्हारी कोई तकनीक नहीं है. जहाँ मन हो, STP लगा लो, जितना, जहाँ मन हो अवजल को डाल दो आदि. यही है, सूक्ष्म-शरीर से सूक्ष्म-शरीर की व्यवस्था.