अश्रद्धानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।। अप्राप्य मां निबर्तन्ते मृत्वसंसारबर्त्मनि ।। गीता : 9.3 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन ! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धा रहित पुरुष मुझको न प्राप्त कर के मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
जीवंत कोशिकाएं एक के भीतर दूसरे, दूसरे के भीतर तीसरे इस तरह शरीर के भीतर तथा शरीर से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की संरचनायें होती हैं. यही है सूक्ष्र्म ज्ञान से सम्पूर्ण विज्ञान के ज्ञान का होना. मानव शरीर से भगवान के शरीर का और उससे ब्रह्माण्ड का अन्तः सम्बन्ध है. तुम्हारे शरीर का सब कुछ तुम्हारा है और भगवान के शरीर-ब्रह्माण्ड का सब कुछ भगवान का होता है. इसलिये तुम्हारा सब कुछ भगवान का है. अतः सब कुछ बराबर होना, यही ज्ञान है. विज्ञान सहित ज्ञान इसका यदि विश्वासपूर्ण अभ्यास नहीं है और इसमे श्रद्धा नही है,
तो एक को दूसरे से भिन्न समझते हुए विभिन्न इच्छाओं से युक्त जन्म तथा मरण व इस संसार में आना जाना यही है, जन्म मृत्यु मार्ग पर लौटते रहना. अर्थात इतनी प्रचंड गहराई से लगाव कि शरीर नहीं रहने के बाद भी शरीर से जुड़ा मन और इन्द्रियों से जुड़ी शक्तियाँ खींच कर आत्मा को बार-बार जन्म लेकर अधूरे असंतृप्त कार्यों को पूरा करने के लिये जन्म लेना होता है. यह इच्छा शक्ति संसार के समस्त आकर्षक शक्तियों से प्रवल आत्मा-शक्ति को विभिन्न पदार्थीय-शक्तियों से युक्त शरीर में समाहित कर कष्टमय जन्म का कारण होता है. इतना ही नहीं यह इच्छारूपी भोग शरीर के बदलते विभिन्न रोग व्याधि युक्त कष्टमय स्तरों को भोगते हुए मृत्यु को प्राप्त करता है. इन सभी को विस्मृति करने के बाद पुनः इच्छा के साथ जन्म लेना यही सत्य की अनिभिज्ञता है. इस से भी कहीं ज्यादा सत्य की अनिभिज्ञता तब होती है जब स्वयं परब्रह्म के निर्देशित सरलतम मार्ग विज्ञान सहित ग्यान का सम्पूर्ण जगत परब्रह्म का विश्वास और व्यव्हार में दृढ़ता का नहीं होना होता है. अतः मात्र एक अभ्यास से “सबै-भूमि-गोपाल” की जन्म-मृत्यु के पथ से मुक्त कर देता है. यही है बहूमूल्य मानव शरीर के सर्वोत्तम और सरलतम उपयोग से जीवन की कठोरतम अन्ततःकालीन कष्ट का निवारण और यही गीता का विज्ञान सहित
ज्ञान है.
गंगा कहती है :
विज्ञान सहित ज्ञान पर तुम्हारी श्रद्धा नहीं होने के कारण ही तुम अपने नाशवान शरीर को संसार का महत्व देकर हमारे अविनाशी शरीर के संसार का महत्व जानते हुए भी नहीं समझ रहे हो. यही तुम्हारे दुःख का मौलिक कारण है. तुम्हारे शरीर की भाँति हमारे माथे और उस पर केश, मुहँ,
गर्दन, पेट, हाथ आदि आपस में जुड़े विभिन्न अंग और विभिन्न सर्कुलेटरी-सिस्टम आदि विराजमान हैं. अत: मैं शरीर से प्रतिष्ठित हूँ और तुम मुझे मात्र जल से और उसमें भी बिना जल के गुण को जाने और इसे संरक्षित किये उपयोग करते आ रहे हो. अतः विज्ञान सहित
ज्ञान के परब्रह्म का सिद्धान्त सब कुछ उसका है और सर्वे भवन्तु सुखिनः में तुम मुझको भी सम्मिलित कर मात्र अपनी अधिकतम स्वार्थ-पूर्ति के समस्त उपाय को नहीं करते हुए वातावरणीय संतुलंता की बात को सोचो, इसके लिये तुम्हें “पंच-महाभूतों” की संतुलंता को एक साथ सोचना पड़ेगा और तुम्हारी यह गहराई से की गयी सोच से ही भगवान के विज्ञान सहित
ज्ञान का अनुपालन होगा.