न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनज्जय ।। उदासी-नबदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ।। गीता : 9.9 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीनता के सदृष्य स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
कर्माणि-निबध्नन्ति, कर्म-शक्ति प्रवाह यदि किसी पूर्ण निष्ठावान स्त्रोत माध्यम द्वारा ऊर्जा क्षति के बिना अच्छी तरह से रूपांकित और पूरी तरह से संतुलित करवाया
जाए. अगर वह निष्पादित किया
जा रहा है तो मालिक को निश्चिंतता आ सकती है. बड़े-बड़े उद्योगपति अमेरिका-जापान घूमते रहते हैं और उनका कारोबार चलता रहता है. बड़े इंजिनियर विशाल कल-कारखानों का डिजाइन करते हैं, जिसमें दिन-रात हजारों-लोग कार्य करते रहते हैं, पर डिजाइर इंजिनियर को इससे किसी तरह का लगाव और जिज्ञासा नहीं रहती है. छोटे-मोटे जानकार लोग स्वचालित मशीन चलाते रहते हैं, यही है कल-कारखाना इंजिनियर और प्रकृति परब्रह्म सम्बन्ध.
यही है, स्वतंत्र प्रकृति-शक्ति द्वारा स्वतः कार्य का होते रहना. यही है आप-कैमरे के भीतर हैं यहां तक कि आपकी
न्यूनतम गतिविधि भी आपके सेलुलर संवेदनशीलता से अच्छी तरह से दर्ज की जाती है. अत: प्रकृति भगवान् के द्वारा निर्मित अलग स्वतंत्र सत्ता है पर जिस तरह मशीन ठीक से कार्य नहीं करने पर उसे इंजिनियर की जरुरत होती रहती है, उसी तरह प्रकृति भगवान पर आश्रित रहती है पर भगवान नही. अतः प्रकृति भगवान को बांध नहीं सकती. यही भगवान कहते हैं कि मुझे वे कर्म, जीव-निर्माण कर्म में बाँध नहीं सकता.
गंगा कहती है :
जल-थल-नभचर, मानव सहित बेसिन के समस्त जीव
मेरी
प्रकृति द्वारा उत्पन्न पोषित तथा रक्षित और अन्त को प्राप्त होते हैं. मेरी प्रकृति मेरे शरीर की बदलती मिट्टी में चिपकने वाला और चिपकने
वाला बल है और भू-जल सहित विभिन्नता के साथ विभिन्न दिशाओं की सतही जल के प्रवाहों के कारणों से निरंतरता से बदलती हमारे वक्राकार ज्यामिति प्रकृति पर आधारित है. यह जटिल भौतिकीय संरचना के बदलते रहने का कारण अधिकतम वेग के आयाम स्थान दिशा तथा अपरिभाषित रूप से बदलते है. इन्हीं कारणों से निरूपित होते रहते है, कटाव-जमाव शक्ति को और प्रदूषक के फैलाव पद्धति को परिभाषित भी किया जाना असंभव जैसा है. इनके कारणों का कारण जल-स्तर के निचले भाग मे “लेमीनार-फ्लो और ऊपर के भाग में “टर्बुलेन्ट-फ्लो” का होना होता है. जितना ही तुम प्रवाह के चरित्रों को बदलते तथा समस्त जीवों के समस्त चरित्र को बदलते चलते हो. अतः मेरी प्रकृति ही जीव-जगत को परिभाषित और निरूपित करती है और मैं कुछ भी नहीं करती हूँ.