नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।। तस्मात्सर्बेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ।। गीता : 8.27 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे पार्थ ! इस प्रकार इन दोनों मार्गों को तत्वों से जानकर कोई भी योगी मोहित नहीं होता, इसी कारण हे अर्जुन! तू सब काल में समबुद्धिरूप योग से युक्त हो अर्थात मेरी प्राप्ति के लिए साधन करने वाला हो.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
धधकते विभिन्न प्रचंड ज्वालों के स्वहाः करने की तीक्ष्ण क्षमता को जानने वाले योगी उनमें अपने प्राण की आहूति नहीं देना चाहेंगें, लेकिन परिणाम जानते हुए भी योगी भ्रष्ट हो जाया करते हैं, यदि उनमें योग करने की निरंतरता नहीं होगी तो इसी कारण वे क्षण में प्रलय होता है, थोड़ी सी चूक पाताल में धकेल देती है,
तब मात्र पश्चाताप हाथ रह जाता है. इस चूक का एक कारण समत्व भाव का अभाव भी हो सकता है. रासायनिक प्रतिक्रिया में भाग लेने बाले रासायनों की मात्रा में थोड़ी सी चूक से समस्त परिणाम विपरीत हो सकते हैं, अतः पूर्ण गम्भीरता से समबुद्धि रूप योग से प्रयोग करने की आवश्यकता होती है. यही भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि अर्जुन ! तुम सब काल में समत्व बुद्धियोग से युक्त हो कर मात्र हमारा भजन करो.
गंगा कहती है :
दोनों कालों शुक्ल और कृष्ण मार्गों देवयान और पित्रृयान को तत्व से जानकर समबुद्धि योग में तुम्हें स्थिर होना ही गंगा की सम्पूर्ण व्यवस्था की परियोजना है. कृष्ण पदार्थ और शक्ति के अन्तः प्रवाह को तो शुक्ल इनके बाह्य प्रवाह को परिभाषित करता है. इनकी संतुलंता पर आधारित परियोजना ही सम्पूर्णता से नदी और वातावरणीय संरक्षण व्यवस्था है. यही उद्धत करेगा खण्ड-खण्ड के पेयजल मात्रा और गुण, सिचाई के लिये जल तथा सिचाई-पद्धति, जल-विद्युत परियोजना की जगह और आयाम बेसिन व्यवस्था और भू जल-संरक्षण, बाढ़ क्षेत्र व्यवस्था और बाढ़-कटाव से बचाव के उपाय, यही है गंगा-व्यवस्था का समबुद्धि रूप योग.