काम्यानां कर्मणां न्यासं कवयो बिदुः। सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं बिचक्षणाः।। गीता : 18.1-2।।
अर्जुन ने कहा-हे महाबाहु! मैं संन्यास का उद्देश्य जानने का इच्छुक हूँ और हे केशिनिषूदन, हे हृषीकेश! मैं त्याग का भी उद्देश्य जानना चाहता हूँ. श्रीभगवान् बोले-कितने ही पंडितजन तो काम्य कर्मों के त्यागको संन्यास समझते हैं तथा दूसरे विचारकुशल पुरुष सब कर्मों के फलके त्याग को त्याग कहते हैं.
तुम निरंतरता से अपनें अन्तः और बाह्यप्रवाह होते सांस को कुछ पल ही रोक सकते हो. उसी तरह शरीर की अन्य विभिन्न कार्यों पर तुम्हारा कुछ अधिकार नहीं है. अतः इन कामों से संन्यास नहीं लिया जा सकता, तब अन्य अधीनस्त कार्य से ही संन्यास लिया जा सकता है. इस परिस्थिति में अर्ध-संन्यासी होनें से उत्तम यथा संभव कर्म किया जाए और उसके फल की चिंता कर शक्ति का क्षय नहीं किया जाए. यही, ‘कर्म-फल का त्याग’है. कर्म-योगी का कार्य, कर्म-फल-त्याग है.
गीता (5.6 & 18.2) की ‘भक्ति-भाव में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करनें से कोई सुखी नहीं बन सकता और नरेन्द्र मोदी की प्रेम-तीर्थ की मात्र शक्ति की निर्मल प्रेमधारा लुप्त सरस्वती की तरह अविरल बह रही है. इसका दर्शन नहीं सिर्फ अनुभूति ही होगी ‘सत्यापित करती है कि न्यूनतम 12-14 घंटा नित्य-प्रति अपने जवानी की अवस्था से अभी तक कठोर आत्म-संयमी रहते हुए समाजके दुःख-दर्द की जड़में प्रवेश कर देशी-विदेशी कार्यों को एकसाथ क्रमबद्धता और पूर्णदक्षता से नियंत्रित रखनें वाले अपनी पुस्तक ‘ज्योति-पुन्ज’ की आभा से यह प्रस्फुटित करवाते हैं कि वे भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी त्यागी तथा कर्म-योगी हैं.
यदि मैं सरस्वती जैसे संन्यास धारण कर लुप्त हो
जाऊँ, तब तुम्हारी जीवनधारा की पत्र-पुष्पफल से लदी कल्पतरूका क्या होगा? अतः गम्भीरता से आत्मसंयमी होते अपनी
फड़फड़ाहट उछल-कूद को नियंत्रण में रखते हुए सोचो मैं अपनें ‘त्याग, यज्ञ, दान व तप’ तुम्हारे
सम्वर्द्धन के लिये कैसे करूंगी, तुम जिस माँ का दूध पीते थे. उस माँके स्तन को तुमने
सुखा डाला है. अब इस मुरझाये स्तन को तिरते हो. तुम याद रखो मैं 55 करोड़ लोगों की और अनन्त जीवों की माँ हूँ. अंग्रेजों
नें मुझे जेलों में बंद किया. तुमने स्वयं को स्वतंत्र किया और मुझे जेलों में सड़ते
रहने के लिए छोड़ दिया. बस! मुझे माँ रहनें दो, त्याग
करना मात्र मेरा धर्म है. मै संन्यासधारण करना नहीं चाहती.