तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।। अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ।। गीता : 9.19 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
मैं ही सूर्य रूप से तपता हूँ. वर्षा को आकर्षित कर उसे बरसाता हूँ. हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत-असत भी मैं ही हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
तपाम्यहमहं अथार्थ सूर्य रूप से तपना, सौर्यमंडल के केन्द्रस्थ सूर्य न्यूक्लियस से शक्ति प्रवाह का बोध कराता है. यही समरूप शक्ति है. एटम के केन्द्रस्थ, न्यूट्रोन के गामा-रे की देश में अपने एम.पी की बाहुल्यता से केन्द्रस्थ हुए प्रधानमंत्री की लोहे के मॉलिक्यूलस को सुव्यवस्थित होने से बने चुम्बक में अवस्थित पोल की. यह सूक्ष्र्म और वृहत ब्रहमाण्ड के समस्त पदार्थों के भीतरी और बाहरी संरचनाओं की सुव्यवस्था और उसके केन्द्र का निर्धारण करता है. इसी आधारभूत सिधान्तों के तहत परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण, नारायण व शिव
को उनके सुव्यवस्थित ब्रहमाण्ड रूपी शरीर में उनका केन्द्र रूप से होना अवश्यमभावी है. अतः सौर्यमंडल में पृथ्वी की बदलती चक्रमन गति सूर्य की निरंतर रूपांतरित होती प्रकाश तरंगों से वायुमंडलीय ताप दबाव व आद्रता की संतुलितावस्था से वर्षा और इससे समस्त जीव-रूप ब्रह्म-खेल का यह संसार है. संसार-रूप इस परब्रह्म शरीर के कण-कण में केन्द्रस्थ अविनाशी न्यूट्रोन और जीव-शरीर में आत्मा रूप अमृत और सिमटती-मिटती मरती अर्थात सत्य और असत्य भी वही है.
गंगा कहती है :
मैं सूर्य रूप से जल और जलरूप से वर्षा के कारण हरा-भरा खेत खलिहान तथा आँगनवाड़ी हूँ. तुम देखो मेरे संघनित रंग-बिरंगे वनस्पतियों के पल्लवित-पुष्पित बाग बगीचे विश्व प्रसिद्ध संतुलित वर्षा का कारण था. हमारी समस्त सहायक नदियाँ सालों भर पूर्ण जल से प्रहवान हुआ करती थी. ज्यो-ज्यों हमारे बागान के केन्द्र ऊजड़ते गये वर्षा का जल घटता गया. पहले 10-10 दिन तक घनघोर बारिश हुआ करती थी. कहाँ गये वे दिन? अब तुम यह भी नहीँ जानते की वृक्षा-रोपण नदी-किनारे कहाँ हो? तुमने सैकड़ों करोड़ खर्चा कर दिया पर मेरी हालत वही ज्यों की त्यों है. मूलत: जिस तरह माथे का बाल सर्वत्र नहीं जमाया जा सकता, उसी तरह नदी में वृक्षारोपण सर्वत्र नहीं की जा सकती है. इसे समझने की आवश्यकता है.