द्वौ भूतसर्गौं लोकेअ्स्मिन्दैव आसुर एव च । दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरे पार्थ में श्रृणु ।। प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः । न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते : गीता 16.6 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन ! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार के है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला. उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया है, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन. आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति, इन दोनों को ही नहीं जानते. इसलिये उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
प्रवृत्ति, शरीर के भीतर शक्ति के उद्गम स्थान से शक्ति के
किसी आयाम को किसी खास दिशा में प्रवाह की अवधारणा है. उसी तरह निवृत्ति, प्रवृत्ति
रूपी शक्ति प्रवाह को अन्तिम लक्ष्य बिन्दु तक पहुँचने को कहते हैं. जो इन दोनों
बिन्दुओं के विषय में कारण और परिणाम
के विषय में नहीं सोचता और मन और इन्द्री को ऐन-केन-प्रकारेन तुष्टि करता है, यही
है बाहर और भीतर के अंगों की कोशिकाओं का शुद्ध नहीं होना. यही कारण है, असत्य भाषण करने
का और शरीर को कम्पनावस्था में लाने का. अतः वह अपना शक्ति क्षय करते कार्य कर देता है और बिना सोच विचार कर मन और इन्द्रियों से
प्रेरित अत्यधिक शक्ति क्षय कर कार्य करने वाला आसुरी प्रवृति का होता है.
गंगा कहती है :
प्रयागराज कुम्भ में
करोड़ों लोगों के मल जल की व्यवस्था बालू रूपी सेप्टिक टैंक आसानी से कर डालता है. कितनी
सरलता और बिना किसी खर्च के मल जल की विकराल समस्या का निदान आसानी से चुटकी बजाते
ही अनादिकाल से होता आ रहा है. गांव में देश के विभिन्न छोटे-बड़े शहरों के हर एक
घर में सेप्टिक-टैंक से जैसे समस्या का निदान होता है, उसी तरह एक तकनीक
सेप्टिक टैंक का उपयोग करके अस्सी-वरूणा-गंगा सहित अन्य नदियों को अवजल
के प्रत्यक्ष प्रवाह से बचाया जा सकता है. यह है देवी प्रवृत्ति का दूसरा रूप, STP को नदी किनारे के
शहर के तीन भागों में अवस्थित बालू क्षेत्र में सही तकनीक से अवस्थित कर बालू सहित सौर्य और नदी की गतिज ऊर्जा का उपयोग
करके न्यूनतम खर्चे में स्थायी रूप से समस्या का निदान किया जाना है. अतः अभी की
प्रदूषण नियंत्रण की व्यवस्था जहाँ जैसे मन हो STP लगा दो और उससे निस्तारित अवजल को कहीं किसी विधि से नदी में
निस्तारित कर दो, तो यह समाप्त ह़ो जायेगी. यही है, हमारे प्रति तुम्हारी आसुरी प्रकृति और प्रवृति, बाहर-भीतर से अशुद्ध, असत्य कार्य का समाप्त होना.