दम्भो दर्पोअ्भिमानश्च क्रोध: पारुष्यमेव च । अग्यान: चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ।। गीता : 16.4 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे पृथापुत्र ! दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञान.
ये आसुरी स्वभाव बलों के गुण हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
दम्भ, बदलता हुआ भीतरी घर्षण
है. दर्प, शक्ति प्रवाह का रोड़ा पत्थर है और अभिमान शक्ति संचालन का
टेढ़ा-मेढ़ा पथ है. विभिन्न आयामों से बदलती दिशाओं में
केन्द्रापसारी बल जैसा है. ये सभी शक्तिक्षय कारक, आवेग नाशक आत्मा को
इनर्शिया आँफ रेस्ट में लाने वाले आत्मघाती, आत्मा को नीचे की
योनियों में धकेलने वाले हैं. पाखंड, अहंकार, अभिमान और क्रोध, कठोरता और
अज्ञानता विभिन्न प्रकार की प्रतिरोधक शक्तियां हैं, जो आत्मा की अधोगामी गति के
लिए जिम्मेदार हैं और जो विभिन्न कमियों से भरे शरीर को अपनाती हैं:
गंगा कहती है :
तुमने बड़े-बड़े बाँधों और बैरेजों का निर्माण किया पर स्मरण रहे ये तुमने अपने स्वार्थ के लिये किया है, मेरे संवर्धन के लिये नहीं. तुमने मेरी शक्ति का क्षय किया है. मेरे जल में ऑक्सीजन रखने की शक्ति भी क्षय हुई है, डायल्यूशन-फैक्टर और डिफ्यूजन शक्ति भी घटी है. मेरे जल में निहित पैथोजन्स को मारने की क्षमताओं को तुमनें नष्ट कर दिया है. मेरे प्रति लोगों की श्रद्धा-भावना विलुप्त होती जा रही है. इससे लोगों का जीवन उद्देश्य “मुक्ति द्वार प्राप्त करना” बंद हो रहा है. अतः भारत की आध्यात्मिकता, धर्म-परायणता प्रभावित हो रही है. बच्चों के संस्कार खत्म होते जा रहे है. यही समाज में गुण्डा गर्दी तथा अशांति का कारण होता जा रहा है. तुम धन उपार्जन के लिये हमारा दोहन करते हो इसके बदले तुम्हें अशांति मिलती चली जा रही है. यही है तुम्हारे दम्भ, घमंड, अभिमान का परिणाम “अशांति”.