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गंगा नदी और गीता – गंगा कहती है – नदियों की शक्ति ढाल की उपयोगिता को क्रमबद्धता से उपयोग करें. अध्याय 18, श्लोक 12 (गीता : 12)

  • By
  • U.K. Choudhary
  • May-14-2019
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित् ।। गीता : 18.12 ।।

श्लोक का हिन्दी अर्थ :

जो त्यागी नहीं है, उसे इच्छित (इष्ट) अनिच्छित (अनिष्ट) तथा मिश्रित, ये तीन प्रकार के कर्मफल मृत्यु के बाद मिलते हैं. लेकिन जो संन्यासी हैं, उन्हें ऐसे सुख-दुःख नहीं भोगने पड़ते हैं.

श्लोक की वैज्ञानिकता :

कर्म फल इच्छा मृत्यु के उपरांत प्राण वायु की प्रवाह दिशा को निर्देशित करती है. कहाँ जन्म लेंगें यह परिभाषित करती है. यह ऊँचा तो स्वर्ग लोक में नीचा तो छोटे योनियों कीड़े-मकौड़े में और बीच की योनि मानव योनि में जाने को होता है और कर्म फल त्याग स्थैतिक ऊर्जा को बढ़ाता है जो मुक्ति-प्रदायक है अतः कर्म करने के उपरांत उसके परिणाम के विषय में बराबर सोचते अपने कम्पन को बढ़ाते शक्ति और समय को नष्ट करते अपने अगले जन्म की अनिश्चितता को बढ़ाते रहना है. यह है शक्ति तरंगों का निरंतरता से शरीर से निस्तारित होते रहना. इसका परिणाम यह होता है कि कोशिका टेढ़ी-मेढ़ी रहते हुए ज्यादा कम्पायमान रहती है और शक्ति-क्षय निरंतरता से होता है. यदि इस तरंग को ब्रह्मस्थ शून्य कम्पनावस्था के कण न्यूट्रॉन की दिशानुमुख कर दिया जाए तो काँपती कोशिका स्थिर हो जायेगी. यही है कर्मफल को भगवान को समर्पित कर संतुलित होना व शांति और मुक्ति प्राप्त करना.

(24) स्थित-प्रग्य भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी कर्मयोगी हैं?  

गीता (5.23 ) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो साधक इस मनुष्य शरीर में शरीर के नाश होने से पहले ही काम क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है वह पुरुष त्यागी कर्म योगी है. गीता की इस व्यक्तित्व की समपुष्टि कवि की हृदयस्थ भावना से प्रतिष्ठित होती है, कवि कहता है कि यहाँ रचा गया है, आत्मविश्वास का अथाह सागर, सर्वस्व न्यौछावर करने की प्रबल इच्छा, मातृभूमि के कल्याण के स्वप्नों का समुद्र, वामन में से विराट बनने की अप्रतिम आकांक्षा, अनुशासन और संगठन का सुभग संगम, समर्पण यात्रा का झरना फूटता है, उज्जवल भविष्य का प्रकाश-पुन्ज दिखाई देता है. यहाँ तप तपस्या जैसे शब्दों का उपयोग नहीं है, यहाँ किसी देवात्मा का अधिष्ठान खड़ा नहीं किया गया है. यहाँ तो उसके हृदय में विवेकानंद के कथनानुसार दरिद्र नारायणों की कामना ही झंकृत की गयी है यह सत शक्ति का मिलन है. हाँ, इसमें से ही तेजोमय जीवन गढ़ा जाएगा, इसमें से ही तेजपुंज उभरेगा, इसमें से ही आध्यात्म की आकांक्षा संतोष पायेगी, यही कर्म धारा सबको नव पल्लवित करेगी, नई  आशाओं के अंकुर फूटेंगे जो खुली आँखों से देखे जा सके, वैसे राष्ट्र कल्याण के फल पकेंगे (पुस्तक-साक्षीभाव , पृष्ठ-57 में तिथि 07-12-1986 की रचना) ये हैं भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के देश के लोगों के उत्थान की हृदयस्थ भावना. अतः वे स्थित प्रग्य रहते कर्मयोगी हैं.

गंगा कहती है :

ब्रह्माण्ड में पृथ्वी ब्रह्म की क्रीडास्थली है. अतः यह ‘ब्रह्म-रूपिणी अनन्त जीवों की माँ है. यह समस्त गुण धारिणी और समस्त अवगुण हारिणी, अवशोषिणी शक्ति शरीर है. इसलिए अपने समस्त कर्तव्य कर्मों के मल जल रूप फल को समुचित स्थान पर पूर्ण तकनीकी ज्ञान से पहले पृथ्वी (मिट्टी) को समर्पित करो तत्पश्चात समर्पित करो ‘जल’ को. तुम्हारी समस्त समस्याओं का निदान सरलता से हो जाएगा. यही है शक्ति ढाल की उपयोगिता को क्रमबद्धता से उपयोग करना, मल-जल की समस्त समस्याओं के निदान का होना, बुरे कर्मों के रूप में मल, जल व विसर्जन के फल से मुक्ति पाना.

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