कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः। आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदा: ।। गीता : 17.9 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार
अर्थात भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
एक शरीर का दूसरे से आकार, प्रकार, रंग, रूप, गुण, शक्ति व समस्या
और समाधान में अलगाव-बिलगाव कोशिका-संरचना पर आधारित है. कोशिका का आकाशीय चरित्र
का बदलते रहना ही शक्ति का अवशोषण व निस्तारण है. अतः हरेक शरीर के कोशिका की
बदलाव क्रिया अर्थात इनके कम्पन्न की स्थिति, शक्ति निस्तारण विभिन्न अंगों का क्रियाकलाप भोजन की रूचि कड़वे,
खट्टे, लवणयुक्त आदि कोशिका के चारित्रिक गुण आधारित पूर्वजन्म अर्जित शक्ति गुण है.
गंगा कहती है :
मेरे विभिन्न अगों यथा मेरे मस्तक, मुख, गर्दन, बाँह, पेट, पाँव आदि की संरचनाओं को इनके आन्तरिक और बाह्य आकाश को देखो. इन चरित्रों के तहत मेरे अवशोषण शक्तियों की विभिन्नताओं को देखो. मल जल की शोषण शक्ति, इनके डैल्यूशन, डिफ्यूजन और डिस्पर्शन शक्ति को जगह और समय से नहीं समझना ही मेरे सात्विकी चरित्र को राजसी चरित्र में रूपांतरित करना है. यही है मेरे जल का काला व दुर्गंध युक्त होना.