आयुधानामहं बज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।। प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ।। गीता : 10.28 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
मैं शस्त्रों में बज्र और गौओं में कामधेनु हूँ. शास्त्रों की रीति से संतान की उत्पत्ति हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकी हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
‘बज्र’, अनिश्चित स्थान और समय, अदृष्यावलौकित स्त्रोत, अनभिज्ञ कारण, अनअपेक्षित शक्ति का ‘इहलीला’ जीवन, क्षणमात्र में समाप्त करने वाला शस्त्र ‘बज्र’, समस्त शस्त्रों के समस्त रूपों व उनके संचालकों के समयों और कारणों की पूर्ण अनभिज्ञता में एकाएक समस्त जीवन खेलों को शून्य में रूपांतरित करने वाला, ब्रह्माश्त्र, ब्रह्मरूपा है. निरंतरता और क्रमबद्धता से होती रहती शारीरिक अन्तःक्रिया को पलटते हुए दूसरों की इच्छानुसार जब चाहें तब दूध देने वाली गाय ‘कामधेनु’, ब्रह्म रूपा है. शास्त्रोक्त रीति समय-स्थान और स्त्री विशेष से संतान की उत्पत्ति करना प्रकृति संतुलन का समय से, जगह से, दूसरे सहयोगी की शक्ति और विषय से शक्ति कार्य और पदार्थ के लेनदेन के सामंजस्य से संतान उत्पत्ति के कामदेव ब्रह्मरूप हैं. यही है, ब्रह्म का कामदेव होना. जिह्वा को निरंतरता से लिबलिबाने वाला विषधर, समयरूपी काल का द्योतक, दुःखमय संसार को परिभाषित करते हुए, परब्रह्म की सज्या क्षीरसागर के उस शांति स्वरूप और आनंदमय वासुकी को संबोधित करता है जो शरणागत हो ब्रह्म रूप हैं.
गंगा कहती है :
ब्रह्म का शस्त्र, ‘बज्र’, जलवाष्प बादल के धनत्व, ताप, दबाव व वेग आदि मेरे चारित्रिक गुण आधारित विभिन्न अनियंत्रित, असंतुलित और अपरिभाषित शक्तियों के परिणामस्वरूप ब्रह्म शास्त्र हैं. इसी तरह ‘बाढ़’ मेरा ‘बज्र’ रूपी शस्त्र है. इसके जगह समय व कारण सभी अपरिभाषित होते हुए बालू का जमना ही बज्रपात स्वरूप है. कामधेनु से जब चाहो दूध निकाल लो पर उसे भोजन भी खिलाना पड़ता है. मुझे तो कुछ खिलाने की आवश्यकता नहीं पर जहाँ से जितना जैसे मन हो जल निकाल लो और जितना जहाँ जैसे मन हो प्रदूषक तत्व डाल दो. अतः कामधेनु से ज्यादा मैं उपयोगी हूँ. मैं प्रकृति के नियमों के तहत ही संगम करती हूँ. यह मेरी जल-जीव उत्पन्न और संरक्षण का मुख्य कारण है. मेरा शरीर सर्पों का घर है. विष्णु, शिव व नागों के देवता जहाँ से और जिनके माथे पर मैं उतरी हूँ. अतः मैं नागेश्वरी शिवाणी ब्रह्माणी हूँ.