हंत ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।। प्रधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ।। गीता : 10.19 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
श्री भगवान बोले - हे कुरुश्रेष्ठ ! मेरी जो दिव्य विभूतियाँ हैं, उनको तेरे लिये प्रधानता से कहूँगा, क्योंकि मेरे विस्तार का अन्त नहीं है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
‘दिव्य विभूतियां’ ऐसी प्राकृतिक संरचनाओं को, शरीरों को तथा ऑर्गेन सिस्टम को परिभाषित करती है, जिसकी न तो आणविक संरचना को और न ही उसके द्वारा होते रहते शक्ति प्रवाह, अवशोषण और विकिरण को मानव के ज्ञान से परिभाषित, व्यवस्थित और नियंत्रित किया सकता है. उदाहरण के रूप में - किसी भी चीज की आणविक संरचना, किसी भी जीव के कोशिका की संरचना, पृथ्वी सहित सूर्य मंडल की संरचना और इन संरचनाओं के तहत इनके समय और स्थान से बदलती रहती शक्ति प्रवाह के तहत नित्य निरंतर खिलती निखरती मिटती अनंन्त होती तथा मिटती रहती ब्रह्माण्ड की सूक्ष्म से वृहत, किसी भी कार्यों को किसी भी तरह से नहीं समझ पाना अथार्त भगवान की दिव्य विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं है, इसे समझना है. यही है, उसकी विभूतियों के विस्तार का अन्त नही होना. अनाज का एक दाना नहीं बनाया जा सकता. अतः यही है, शून्य से शून्य के बीच की अनंन्त रंग बिरंगें, क्षण-क्षण बदलते, खिलते व मिटते रहने वाले समस्त कार्य और इसके तहत होती समस्त संरचनाएं. परब्रह्म की दिव्य विभूतियों के विस्तार का अन्त नहीं हैं.
गंगा कहती है :
मेरे विस्तार का अन्त नहीं है, मैं त्रिपथ धरती, आकाश तथा पाताल गामिणी हूँ. निरंतरता से मेरे शरीर के समस्त अंगों की संरचनाओं में, उनके मिट्टी के गुणों और इनके बदलते सजावट से विभिन्न घर्षण शक्तियां, जगह और समय से बदलते चलते हैं, यही कारण है कि नदी का वेग किसी भी जगह के किसी भी बिन्दु पर, किसी दो समय में एक नहीं हो सकता. इस घर्षण शक्ति के बदलते आयाम और दिशा मुझे वक्राकार पथ गामिणी बनाते हुए विचित्र नृत्यांगणा, तीन दिशाओं में बदलते समय और स्थान से, तरंग बदलते विभिन्न तालों वाली ऐसी धारा को प्रतिष्ठित करती है, जिसे आज तक के नदी विज्ञान का ज्ञान परिभाषित तक नहीं कर पाया है. इसी तरह मेरे भूजल संचालन पद्धति और वायुमंडलीय प्रवाह पद्धति को किसी तरह जान पाना कठिन है. ये नदी की दिव्य विभूतियों के भाग है, जिन्हें विज्ञना का कोई समीकरण परिभाषित नहीं कर सकता है.