मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येअ्पि स्युः पापयोनयः ।। स्त्रियो वैश्यस्तथा शूद्रास्तेअ्पि यान्ति परां गतिम् ।। गीता : 9.32
।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शुद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
स्त्रियों वैश्यास्तथा शूद्रास्ते, स्युः पापयोनय:, जन्म-जात स्वरूपीय इन्द्रिय एवं अन्य परिस्थितियों के तहत विभिन्न कार्य पद्धतियों से विशेष रूप से कोशिकाओं के कम्पन्न को शरीर से ज्यादा शक्तिक्षय रफ्तार की पद्धति को आधार मानते हुए स्त्री वैश्य शूद्रादि को पापयोनय: भगवान श्रीकृष्ण ने उद्घोष कर यह कहा है कि किसी योनि के किसी स्वरूप और कर्म के तहत किसी स्तर के कंपकंपाते शरीर से निस्तारित होने वाली शक्ति-प्रवाह मेरे भक्ति भाव से समाप्त हो जाती है और वह परम शांति को प्राप्त करता है. अतः शरणागत केन्द्र पूर्ण शक्ति शांति से अवश्यमभावी होता है.
गंगा कहती है :
मेरे जल में अनन्त काल से अनन्त मानव, कुम्भ एवं अन्य पर्वों में स्नान तो जरूर करते हैं पर फल तो मात्र उसी को प्राप्त होता है जिसने स्नान से पहले अपने आत्मस्त पवित्र मातृ भावना के तहत पहले के विभिन्न पापकर्मों से टेढ़े-मेढ़े कोशिकाओं को सीधा कर मातृ भावना से पूर्ण कर लिया है. यही होता है, गंगा स्नान में डुबकी, दिन-रात, मल्लाह, पशु-पक्षी, जल-जीव और अन्य-जन्तु लगाते तो हैं पर परमगति को प्राप्त नहीं हो सकते हैं उनका वातावरणीय संस्कार जरूर बदलता है.