त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यग्यदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।। निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम । त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।। गीता : 18.3-4 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
कुछ विद्वान घोषित करते
हैं कि समस्त प्रकार के सकाम कर्मों को दोषपूर्ण समझकर त्याग देना चाहिए किन्तु
अन्य विद्वान मानते हैं कि यज्ञ, दान तथा तपस्या के कर्मों को कभी नहीं त्यागना
चाहिए. हे भरत श्रेष्ठ ! अब त्याग के विषय में मेरा निर्णय सुनों । हे नरशार्दूल !
शास्त्रों में त्याग तीन तरह का बताया गया है.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
सकाम कर्म, इच्छा-युक्त
कर्म, पूर्ण शक्ति-प्रवाह को
निर्धारित बिन्दु तक नहीं ले जाने का अधूरा कर्म है. कर्म करना कर्तव्य धर्म है और पूर्ण शक्ति प्रवाह को निर्धारित दिशा में
निर्धारित बिन्दु तक ले जाना कर्म का त्याग है. राज्य, जवानी, सुख, नवजात
पुत्र-मोह को त्यागनें वाले ‘सिद्धार्थ’ विश्व का शांति-पथ
प्रदर्शक ‘गौतम बुद्ध’ बने. इस तप का त्याग नहीं
करना अर्थात इस तप को करना. यही है, ज्ञान, विद्या के लिए धन का त्याग नहीं करना.
यही है ‘जप-यज्ञ विद्यार्जन-तप, विद्या-दान-महादान आदि
त्याग के रूप की अनिवार्यता का होना. भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यह त्याग तीन
प्रकार के हैं, जिन्हें वे आगें
कहते हैं.
(16) गीता (5.8-9 और 18.4) यह सत्यापित करती कि तत्व को जानने वाला सांख्य योगी
देखता-सुनता व स्पर्श करता, भोजन करता, गमन करता, बोलता हुआ आदि में वह अपने समस्त इन्द्रियों को
साक्षी भाव से देखता हुआ यह मानता है कि वह कुछ भी नहीं करता है. इस तरह सदा स्थिरावस्था में पूर्ण शक्तिवान
दिखते रहने वाला ही अपने पुस्तक ‘साक्षी-भाव’ की पृष्ठभूमि में यह लिख
सकता है कि मुझे किसी को मापना नहीं
है, मुझे अपनी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करनी है. मुझे तो नीर-क्षीर के विवेक को ही
पाना है. मेरी समर्पण यात्रा के लिये यह
सब जरूरी है. इसीलिए इस शक्ति की उपासना का केन्द्र स्व का सुख नहीं बनाना है. माँ
तू ही मुझे शक्ति दे जिससे मैं किसी के भी साथ अन्याय न कर बैठू परन्तु मुझे
अन्याय सहन करने की शक्ति प्रदान कर. ‘यही है भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र
मोदी जी के आत्मशक्ति की केन्द्रस्थ तत्व. अतः वे महान ‘कर्म-योगी हैं.
गंगा कहती है :
यज्ञ, आत्म शक्ति व संरक्षण कोशिका
व्यवस्था मेरे क्रौससेक्शन को सुव्यवस्थित करने की तकनीक को सम्बोधित करता है. दान,
जल और शक्ति की वितरण पद्धति ‘कहाँ-कितना और कैसे’ को परिभाषित करता है और तप मेरे समुचित
भौतिकी-संरचनाओं की रेखांकन कैसे हो इसको लक्षित करता है. इन तीनों कार्यों का
नहीं होना मुझे संन्यास की अवस्था में छोड़ना हुआ. यदि मेरी यह अवस्था है तो मुझसे
दोहन और मेरा शोषण कैसा? तुम जबाब नहीं दे
सकते क्योंकि तुम अपनें स्वार्थ में अंधे हो चुके हो और तुम्हारा विवेक नष्ट हो
चुका है.