यः शास्त्रविधि- मुत्सृज्य वर्तते कामकारतः । न स सिद्धि मवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ।। गीता : 16.23 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
जो पुरुष शास्त्र विधि को
त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न ही
परमगति को और न ही सुख को.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
मन अथार्त विभिन्न चरित्रों, आवृत्तियों व आयामों वाली
दिशा विहीन निरंतरता से बाहर-भीतर असीमित गति से समस्त अवरोधो को लांघते हुए,
कोशिका को निरंतर अव्यवस्थित रखते, शक्ति क्षय करते
हुए निस्तारित होते रहने वाली शक्ति तरंगें हैं. यह शिव का तथा भगवान विष्णु का जिह्वा लहलहाते रहने वाला विषधर नाग जैसा, लोगों को उनके पास जाने से रोकने वाले जैसा है
ताकि मानव को आत्मा-परमात्मा का ज्ञान न हो पाए. यही है, न्यूक्लियस के आउटरमोस्ट
ऑर्बिटल का प्रतिक्रियात्मक कांपता हुआ मानों शस्त्र भांजता हुआ इलेक्ट्रान जो न्यूक्लियस तक जाने में बाधक का कार्य करता है. इस खूंखार
मन को, इलेक्ट्रान के कम्पन्न को नियंत्रित करने की तकनीक को महान साधकों ने एटम के
केन्द्र में स्थिरावस्था में अवस्थित न्यूट्रॉन के दिशान्मुख करने को शास्त्रों
में उल्लेख किया. यही इलेक्ट्रान, प्रोटोन
व न्यूट्रॉन का सम्बन्ध मन, आत्मा और परमात्मा जैसा है. यही शास्त्रों का ज्ञान है,
जिसके बिना किसी तरह की सिद्धि को न सुख को और
न परमगति को प्राप्त किया जा सकता है. यही गीता कहती है.
गंगा कहती है :
शास्त्रों ने मेरी जीवंतता का, मेरे मातृत्व भाव का तुम्हें भरपूर ऑक्सीजन तथा जल प्रदान करने की शक्ति का, तुम्हारे शरीर में कोई पैथोजन न रहे उस शक्ति का, तुम्हें संस्कारी बनाते हुए धन-धान्य से सम्पन्न रखने की सामर्थ्य का और तुम्हें सांसारिक महाजालों व कष्टों के निवारण करने के मातृत्व स्वरूप का वर्णन किया. इन सब के उपरांत जापान के वैज्ञानिक “इमोटो” ने वैज्ञानिक आंकड़ों से यह सत्यापित कर दिखाया है कि जल का मोलेकुलर स्ट्रकचर उनके प्रति तुम्हारी भावना और व्यवहार से कैसे रूपांतरित होता है? अतः सम्पूर्णता से यह सत्यापित है की मैं जीवंत हूँ और इसको जब तक तुम अपनी आत्मा में प्रतिष्ठित नहीं रखोगे तदानुसार मेरे दोहन और शोषण को नहीं नियंत्रित कर पाओगे और तुम्हें सुख-शांति प्राप्त नहीं हो सकती.