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गंगा नदी और गीता – गंगा कहती है – नदियों के समाप्त होने से संस्कृति और संस्कार भी समाप्त हो जाएंगे. अध्याय 18, श्लोक 15-16 (गीता : 15-16)

  • By
  • U.K. Choudhary
  • May-14-2019
शरीरवांग्मनोभिर्यत्कर्मं प्रारभते नरः । न्याय्यं वा विपरीतं वा पज्चैते तस्य हेतवः ।। तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः । पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।। गीता : 18.15-16 ।।

श्लोक का हिन्दी अर्थ :

मनुष्य अपने शरीर, मन या वाणी से जो भी उचित या अनुचित कर्म करता है, वह इन पाँच कारणों के फलस्वरूप होता है. अतएव जो इन पाँचों कारणों को न मान कर अपने को ही एक मात्र कर्ता मानता है, वह निश्चय ही बहुत बुद्धिमान नहीं होता और वस्तुओं को सही रूप में नहीं देख सकता.

श्लोक की वैज्ञानिकता :

एक शब्द बोलने के लिए ही सही एक न्यूनतम निर्धारित शक्ति प्रवाह की एक निश्चित दिशा में विभिन्न अवरोधों को पार करते हुए लक्ष्य बिन्दु तक पहुँचने के लिए आवश्यकता होती है. इस शब्द की जन्मस्थली है ‘शरीर’,  उथ्थानक है ‘आत्मा’ , विरोधक है विभिन्न ‘इन्द्रियाँ और मन’, इनके उपरांत बुद्धि के चिंतन और इसके उपरांत लक्ष्य बिन्दु, उद्देश्य ‘शांति, परमात्मा है. ये शरीरस्थ क्रियाएँ होती है एक शब्द निकालने में. अतः यह अवधारणा कि ‘मैं’ बोल रहा हूँ, यह अपूर्ण है. मुझसे बुलवाया जा रहा है वह पूर्ण है.

(26) स्थित-प्रग्य भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी कर्म-योगी हैं?

गीता (5.25) व्याख्या करती है कि जिसके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत हो गये हैं, जिनकी इन्द्रियाँ पूर्ण संयमित हैं और जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत है और जिसका जीता हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरूष शांत ब्रह्म को प्राप्त होता है. कवि अपने आत्मस्त भाव और ‘ब्रह्म-लय’ में जगज्जननी माँ के श्री चरणों में प्रणाम करते कहता है, ‘माँ, तेरी कैसी अजब कृपा है, देख न चार दिन हो गये हैं,  भोजन और नींद दोनों ही उपलब्ध नहीं, किसी परिस्थिति के कारण तो किसी निर्णय के कारण, फिर भी थकावट जैसा कुछ लगता नहीं है. अरे, कल की रात तो निपट नींद के बिना ही बिताई, फिर भी प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ. सच में, यह सब तेरी कृपा के बिना संभव है क्या? (पुस्तक-साक्षीभाव, पृष्ठ-53) यही है भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की ‘असीम आत्मविश्वास के साथ ब्रह्मस्थ होते दिन-रात की नींद और थकावट को विस्मृति करते भारत का चौकीदार होना.

गंगा कहती है :

तुम्हारी ‘शुद्धस्वरूप आत्मा’ मेरे शरीर की मलीनता, इसके तृणकाय होते स्वरूप और मेरी समस्त सहायक नदियों की मिटते अस्तित्व का कारण नहीं है. इनके कारणों का कारण है, तुम्हारे इन्द्रियों को भोगी होना. तुम्हारी अशुद्ध बुद्धि में इन्द्रिय भोग की ललक प्रचुरता से समाविष्ट हो चुकी है. तुम दिन-रात इस भोग के लिए तड़पते रहते हो, इसी कारण मेरा दोहन और शोषण करते हो. अतः तुम्हारे विभिन्न भीतरी दुश्मन तुम्हारे संस्कार को मलिन करते मेरे अस्तित्व को अन्त की ओर ले जा रहें है. जागो ! मेरे मिटने के उपरांत तुम जिन्दा रहते हुए भी मिटे रहोगे, तुम्हारे मुक्ति का सरल रास्ता मिट जायेगा. तुम्हारी संस्कृति और संस्कार समाप्त हो जायेगा तब ?

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