यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः । प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ।। गीता : 17.4 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
सात्त्विक पुरुष देवों को
पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और
राक्षसों को तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेत और भूत गणों को पूजते हैं.
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
सात्त्विक मनुष्य ,
श्रद्धा युक्त, रेखांकित संघनित न्यून
कम्पन्नावस्था में अवस्थित कोशिकाओं से शक्ति तरंगों को निस्तारित करते हुए कार्य
करने वाले वातावरण को संतुलित रखने वाले तथा देवताओं की पूजा करने वाले होते हैं. यह उनके केन्द्र न्यूक्लियस के प्रति
अटूट श्रद्धा दंडीस्वामी के हाथ का नारायण अवधारित दंड है. राजसी न्यून श्रद्धा के
पुरुष, अव्यवस्थित कोशिकाओं से थरथराते शक्ति तरंगों को निस्तारित करने वाले ऐसे
कार्यों को सम्पादित करते हैं, जो वातावरण में अपने स्थैतिक ऊर्जा से प्राकृतिक
शक्ति प्रवाहों का अच्छे कार्यों में यक्ष और राक्षसों जैसा विशेष अवरोधक होता है.
तमोगुणी पुरुष अश्रद्धा की पराकाष्ठा वाले, तितर-बितर और टेढ़ी-मेढ़ी कोशिकाओं से
टर्बुलेन्ट एनर्जी को निस्तारित करने वाले वातावरण को गहराई से असंतुलित करने का
कार्य भूतों और प्रेतों जैसा करते हैं.
गंगा कहती है :
सेडीमेन्टरी रॉक का ऊँचा व ऊँचे ढ़ाल का ज्यादा छिद्रदार हिमालय के
चट्टानों पर छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण, मेरे समतल बेसीन में STP का बालूक्षेत्र में अवस्थित कर सौर्य एवं अन्य
ऊर्जाओं का उपयोग, ग्रेट प्लेन ऑफ़ इंडिया
में मेढबंदी से जल संरक्षण आदि को करना सात्विक कार्य का होना होगा. टिहरी, भीमगोडा, नरोरा व फरक्का STP का बनना रजोगुणी कार्य है और समस्त प्रत्यक्ष
नालों का बिना किसी तकनीक के गलत जगहों के STP
का इनसे निस्तारित अवजल को नदी में विसर्जित
करना तमोगुणी कार्य है.