उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुज्जानं वा गुणान्वितम् । बिमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ग्यानचक्षुषः ।। गीता : 15.10 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ -
मूर्ख न तो समझ पाते है कि जीव किस प्रकार अपना शरीर त्याग सकता है, न ही वे यह समझ पाते हैं कि प्रकृति के गुणों के अधीन वह किस तरह के शरीर का भोग करता है, लेकिन जिसकी आँखें ज्ञान में प्रशिक्षित होती है, वह यह सब देख सकता है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
तुम तो घेरे में, जेल में, इन्द्री-मन के महाजाल में विभिन्न ऑर्बिटलस के भीतर सूक्ष्म अति सूक्ष्म बिन्दु हो. घेरों के प्राकृतिक नियमानुसार इन्द्री और मन से नियंत्रित तुम्हें एक जगह से दूसरी जगह जाने का अभ्यास ही तुम्हें इधर से उधर घूमाता है. न्यूक्लियरस में तुम न्यूट्रॉन के साथ अवस्थित प्रोट्रोन, न्यूट्रॉन से नियंत्रित नहीं हो कर दूर में, आउटरमोस्ट आर्बिटल पर घूमते इलेक्ट्रान से मिलने के चक्कर में इन्द्री-मन द्वारा नियंत्रित हो रहे हो, अतः तुम मूर्ख हो ज्ञानी तो वह है जो प्रकृति के इस इन्द्री मन रूपी घेरे के बंधन को देखता है. यही है आत्मज्ञान का होना. मैं आत्मा, इन्द्री, मन नहीं हूँ, का अभ्यास ही ज्ञान है, इसे दृढता से अवधारित करना.
गंगा कहती है :
गंगा कहती है, तुम अपनी इन्द्रियों और मन की संतुष्टि के लिये अर्थात शरीर भोगों के लिये मात्र मुझे उपभोग कर रहे हो, यही समस्या है, यदि तुम ज्ञान से उपयोग करते तो कोई समस्या नहीं होती, इसी के लिये ही तो मैं आयी हूँ. डैम, बैरेज, STP, माल वाहक जहाज आदि सभी बन सकते है, पर ये किस क्षमता के कहाँ और कैसे हैं इसका ज्ञान तुम्हें नहीं है. यही कारण है कि तुम्हारा कार्य उपयोग का नहीं उपभोग और उससे नीचे दोहन का है, अतः तुम संतुलित नदी व्यवस्था तकनीकी नहीं जानते, यह जानने का प्रयास नहीं करना ही तुम्हारी कमजोरी है, जो देशहित के लिए सही नहीं है.