अहं क्रतुरहं यग्यः स्वधाहमहमौषधम् ।। मन्त्रोअ्हमहमेबाज्यमहमग्निरहं हुतम् ।। गीता : 9.16 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ,
मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवन रूप क्रिया भी मैं ही हूँ .
श्लोक की वैज्ञानिकता :
वैदिक-संस्कृति, परंपरागत-व्यव्हार, जीवन-यापन के तौर तरीके और जीवन गाड़ी चलाने का तरीका वही बना सकता है, जो ज्ञाता तथा सबका शुभ चिंतक हो. यह परमात्मा के सिवा कोई हो ही नहीं सकता है. अतः वेद
परब्रह्म प्रद्त अर्थात् स्वंय ब्रह्म है. उसमें वर्णित जीवन यापन के समस्त कर्म, हवन तथा यज्ञ हैं. अत: पदार्थ को शक्ति में रूपांतरित करना यज्ञ है. पदार्थ का शत-प्रतिशत शक्ति में तभी रूपांतरण संभव है यदि यज्ञ के विभिन्न पदार्थौं और विधियों को साक्षात परब्रह्म समझ लिया जाये. यह मैटर को उसकी 100 प्रतिशत ऊर्जा में परिवर्तित
करने के लिए उच्चतम-स्तरीय एकाग्रता प्राप्त करने की सबसे ठोस तकनीक है, यह सोचकर कि सभी
सामग्री और तरीके ईश्वर के सिवाय कुछ नहीं हैं, यह तभी संभव है जब यज्ञ की समस्त सामग्री हवन कर्म करने के निःस्वार्थ समस्त तरीके से स्वधा हो, हवन-कर्म करने की पवित्र लकड़ी औषधि हवन-कर्म करने की एकाग्रता के लिये कोशिकाओं की दृढ़ता सूक्ष्म मंत्र तरंगों, हवन-कर्म की सामग्री, लकड़ी घृत अग्नि एक निश्चित स्थान, हवन-कुण्ड और समस्त विधियाँ ब्रह्म का ब्रह्म द्वारा ब्रह्म के लिये अर्थात सब कुछ ब्रह्म है.
गंगा कहती है :
समस्त वेदों-पुराणों आदि ब्रह्म-ग्रन्थों के रचनाकार गिरिराज हिमालय की कन्दराओं में तपस्या करने वाले महान योगी, तपस्वी मेरे ही संतान थे. समस्त यज्ञों की अधिष्ठात्री मैं हूँ. वेदों की रचना मेरी गोद में हुई है. वैदिक परम्पराएँ मुझसे प्रस्फुटित हुई है. मैं स्वधा त्याग की अधिष्ठात्री हूँ. राजा सागर के पुत्रों सहित असंख्य मनुष्यों जीवों का भवसागर से उद्धार करने वाली हूँ. समस्त मंत्रो का उद्गम् मेरे संस्कार और संस्कृति हैं. अतः किसी भी यज्ञ की समस्त सामग्री, मंत्र और विधि मुझसे उत्पन्न हुई है. मैं नित्य और निरंतर शक्ति को पदार्थ में और पदार्थ को शक्ति में रूपांतरित करते हुए वातावरण को संतुलित करती रहती हूँ. मेरे इस कार्य को यदि तुम समझते तो तुम कुछ और ही होते.