यस्मात्क्षरमतीतोअ्हमक्षरादपि चोत्तमः । अतोअ्स्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम: । गीता : 15.18 ।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
क्योंकि मैं नाशवान जड़ वर्ग क्षेत्र से तो सर्वथा अतीत हूँ
और अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूँ, इसलिये लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम
नाम से प्रसिद्ध हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
जड़ वर्ग, जड़ पदार्थ, स्थैतिक-ऊर्जा में अवस्थित, क्रमबद्धता
विहीन सूक्ष्म कणों से निर्मित,
सम्बन्धहीन
शक्ति के अन्त: और बाह्य-प्रवाह का पदार्थ है. यह काँपता है पर उसमें धड़कन नहीं होती,
पर समस्त जीवात्मा के शरीर, सूक्ष्म-कणों, कोशिकाओं की निर्धारित अलग-अलग
आकार-प्रकार और सजावट से इन्द्रियों को रेखांकित करते हैं. मन, बुद्धि और आत्मा-परमात्मा को प्रतिष्ठित
करते हुए. क्रमबद्धता की
शरीर विभिन्न शक्तियों- विशिष्टताओं की होती है, यही है जीव-शरीर के सूक्ष्म-कणों
की व्यवस्था. जिसमें जीव से जीव को और जीव में जीव की शक्ति और गुणों का मूल्यांकन
होता है. अतः शरीर का वह कण जो अविनाशी आत्मा को परिभाषित करता है, वह अन्य कणों
से अलग उसी तरह होता है,
जिस
तरह रानी-मधुमक्खी अन्य मधुमक्खियों से अलग होती है. यही भगवान श्री कृष्ण कहते
हैं कि मैं अविनाशी जीवात्मा से अलग हूँ, इसीलिए लोक में और वेद में पुरुषोत्तम
नाम से प्रसिद्ध हूँ.
गंगा कहती है :
उन्हें मैं जड वर्ग समझती हूँ जो मुझे पानी समझता है. जो
जैसा मुझे मानता है, तदानुसार उसकी
कोशिका व्यवस्थित होती है और उसे शक्ति मिलती है. यही है पत्थर को देवता समझने वाले,
पूजन का फल प्राप्त करते हैं. रैदास
कठौती
में जल को गंगा मानते थे. यह उनके पराकाष्टा के स्तर की साधना थी और लोग ऐसे भी
हैं जो मेरे जल को जिसमें 14-15
पी.पी.एम तक ऑक्सीजन रहती है और जिसमें जीवाणु नहीं होते, उसे
पानी समझते हैं. अतः तुम मेरी विशिष्टाओं का मूल्यांकन कर रक्षा करों.