यथाकाशास्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।। तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्यु-पधारय ।। गीता : 9.6 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाली महान वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसै ही मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से सम्पूर्ण भूत मुझ में स्थित है.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
वायुमंडलीय समस्त गैसों के निरंतरता से बदलते सम्मीश्रण से स्थिर रहता है. असंख्य तरह की रासायनिक एवं अन्य क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं से शक्तियों के आदान-प्रदान की उथल-पुथलताओं से वायुमंडलीय कम्पन्नावस्था बदलते रहते हुए भी उसकी कुल शक्ति स्थिरावस्था में रहती है, यही है सम्पूर्ण मात्रा और शक्ति का स्थिर होना. यही है, द्रव्यमान और ऊर्जा सिद्धांतों का संरक्षण. वायुमंडलीय विभिन्न ऊर्जाओं के साथ अपने बदलते रूप-रंग-स्वभाव की वायु सम्पूर्णता से समस्त जीवों की उत्पत्ति से अन्त तक की क्रियाओं को परिभाषित करते हुए, परब्रह्म-शरीर को प्रतिष्ठित करती है. स्थान और समय से वायु चरित्रों, ताप-दबाव तथा आद्रता आदि का बदलना वातावरणीय स्थिति को परिभाषित करते हुए समस्त जीवात्माओं की शारिरिक एवं चारित्रिक गुणों की व्याख्या करता है. यही है परमात्मा के शरीर आकाश में रंग-बिरंगें अनंत जीवों के अनन्त शरीरों का होना.
गंगा कहती है :
जिस तरह आकाश में विचरने वाली महान वायु अपने विभिन्न बदलते अवयवों के साथ सदा आकाश में स्थित रहता है, उसी तरह किसी भी स्तर का जल, शुद्ध या प्रदूषित होकर समस्त-जल हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिलेगा. मेरी इस स्थैतिक ऊर्जा का सही आंकलन और उपयोग नहीं करना ही “नदी-जल-प्रदूषण” का समस्त कारण है. यह जल या अवजल कहाँ, कितना और कैसे नदी में गिरे, इसे नहीं समझना नदी-प्रदूषण का कारण है. इसका निवारण ही तीन ढ़लान का सिद्धान्त है. जो इन्टरनेट पर उपलब्ध है. अतः जिस तरह वायु के विभिन्न-गुणों की उपलब्धता स्थान और समय से परिभाषित होता है और बदलता चलता है. उसी तरह नदी के विभिन्न स्थानों की विभिन्न शक्तियाँ शुद्ध पेयजल लेने की और अवजल विसर्जित करने की होती है. इनको नहीं समझना ही गंगा सहित अन्य नदियों की समस्या है, जिनसे समस्त जीव विभिन्न तरहों से प्रभावित होते हैं.