सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ।। गीता : 9.7 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन हो जाते हैं और कल्पों के आदि में, मैं उनको फिर रचता हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
कल्प कितने ही करोड़ वर्ष, असंख्य जीवात्माओं को अपने अपने विभिन्न शरीरों में आने-जाने के उपरांत परब्रह्म के शरीर में प्रवेश करना पड़ता है और पुनः कल्प के आरंभ में ये समस्त आत्मायें परब्रह्म के शरीर से प्रकट होटी हैं. इसका अर्थ है कि परमात्मा के शरीर में एक बार प्रवेश करने में और फिर उनसे निकलने में करोड़ों वर्ष तो इनसे पहले विभिन्न अन्य शरीरों में इतने दिनों में जाना और आना, असंख्य-असंख्य बार. अत: आना-जाना और इनका रफ्तार समस्त जीवों के जीवन के समस्त पद्धतियों को परिभाषित करते शालीनता के साथ जीवन-संचालन की व्याख्या करता है. यही है सांस का आना-जाना, भोजन-पखाना, दिन-रात, सुख-दुःख आदि. इनकी तारंगिक बारंबारता जीव के जीवन-पद्धति की व्याख्या करते इनकी समुचित-संतुलितता से शक्तिक्षय कैसे न्यूनतम किया जा सकता है और सुख- शांति प्राप्ति की जा सकती है. इनकी प्रस्तुति करता है. क्या यह संभव है कि आना-जाना नहीं पड़े? यदि आना-जाना है ही तो यह शालीनता-पूर्वक न्यूनतम कैसे? ये जीवन के समस्त क्षेत्रों के मौलिक प्रश्न हैं.
गंगा कहती हैं :
मैं स्वयं व शास्त्र-वेद-पुराण
और विज्ञान बताते है, कि कल्प के आरंभ में जीव की उत्पत्ति नदी-जल से हुई है और जल में ही इसका विसर्जन भी होगा. अतः इससे यह सत्यापित होता है कि जल अकेला “पंच-तत्वों का सम्मिश्रण” है. वास्तविकता भी यही है कि विभिन्न रासायनिक अवयव मिट्टी को, विभिन्न गैस वायु को, तापीय स्थिति अग्नि को, स्थान आकाश
को और “जल” जल को परिभाषित करता है. इन पाँच तत्वों से जल की संरचनात्मकता ही जीव की उत्पत्ति है और उनका पालन-पोषण एवं उनके विसर्जन का भी कारण है. जल की यह शक्ति नदी में अन्तः एवं बाह्य प्रवाह की संतुलंतता, जो विलयन कारक
से परिभाषित होती है, उस पर निर्भर करता है, यही है किसी भी नदी का किसी भी क्षेत्र में जल-अवजल अनुपात तथा उस नदी-क्षेत्र के समस्त जीवों के विकास के उद्बोधक का होना. अतः नदियों के अन्तः प्रवाह और बाह्य प्रवाह की संतुलंतता को संरक्षित करना ही देश को विकसित करना है.