कैर्लिंगैस्बन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो। किमाचारः कथं चैतांस्वीन्गुणानतिवर्तते ।। गीता : 14.21 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
अर्जुन ने पूछा-हे भगवान! जो इन तीनों गुणों से परे है, वह किन लक्षणों के द्वारा जाना जाता है? उसका आचरण क्या होता है और वह किस उपाय से इन तीनों गुणों से आतीत होता है?
श्लोक की वैज्ञानिकता :
“बुद्धि” से किए गए कार्य सत्त्वगुण है. यह संतुलित-संयमित, शक्ति-प्रवाह और शक्ति-संग्रह करते कार्य होते रहने की न्यून कम्पन्नावस्था का परिचायक होता है. इससे प्रतिपादित कार्य के लक्ष्य एवम् परिणाम की कल्पना होती है अर्थात् यह उद्देश्य युक्त होता है. यथा ; यज्ञ करना, दान देने आदि से स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा हो सकती है. अतः सत्तोगुण दूर की इच्छा ही है, परंतु यह त्याग से जुड़ने के कारण आत्मबल प्रदायिनी होती है किंतु रजो गुण में, इच्छा की प्रबलता से, मन का कार्य, कम समय में अधिक लाभ प्राप्त करने का, तीव्रता से शक्ति-व्यय करने के कार्य में, कपकपाहट ज्यादा रहती है और तमोगुणी कार्य, इन्द्रियों द्वारा प्रेरित कार्य, विशेष गहराई के लगाव का कार्य कठोर-बंधन है. इन तीनों से अलग, तुरंत का तुरंत शांति देने वाले कार्य क्या है, इसे ही अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं.
गंगा कहती है..
ज्ञान का सत्वगुणी कार्य वह होता है, जिसमें पदार्थिय त्याग से दुर्गामी और दीर्घकालिक सुखदायक परिणाम हो, यथा बेसिन में भू-जल के संग्रहण की व्यवस्था, खेत की मेड़बंदी, तालाबों की व्यापक व्यवस्था, विलुप्त होती नदियों का ऊद्धार, समुचित स्थानों पर नदियों के नदोत्तर किनारों पर वृक्षारोपण आदि. अतः नदी में जल की अन्तः प्रवाह क्षमता को बढ़ाना, सत्वगुणी कार्य कहलाता है. यह सब कार्य तो तुम करते नहीं. अतः तुम नदी पर जितना कार्य करते हो, चाहे वह डैम, बैराज या मालवाहक जहाज का चलाना हो, तुम्हारा कार्य रजोगुणी है. यह भूस्खलन को तीव्र करने वाला, जल-गुण को नष्ट करने वाला, मृदाजमाव में वृद्धि, बाढ़ की समस्या को विकराल करने वाला और वातावरणीय व्यवस्था को नष्ट करने वाला है. अतः संतुलन के केन्द्रस्थ सिद्धान्त को तुम समझो तो समस्त समस्याओं का निदान हो जायेगा.