“परस्तस्मात्तु भाबोअ्न्योअ्ब्यक्तात्सनातनः ।। यः स सर्बेषु भूतेषु नश्यत्सु न बिनश्यति” ।। गीता : 8.20 ।।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मा के सूक्ष्म-शरीर से विलक्ष्ण अनादि अत्यन्त श्रेष्ठ भावरूप, अव्यक्त ईश्वर है. वह सम्पूर्ण प्राणियों, कोशिकाओं आदि के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है. जैसे फूल के नष्ट होने पर भी उसकी सुगंध मनस्थली में तरंगायित होती रहती है. मृत्व के उपरांत भी उसके प्रति बनी भावना जल्दी विस्मृत नहीं होती. यही है भावरूप से अव्यक्त ब्रह्म का नष्ट नहीं होना.
भावरूप समझ से रूप-स्वरूप-आकृति-प्रकृति को समझना अवधारणा है. यह अव्यक्त, सूक्ष्माति- सूक्ष्म, परम शक्ति-शाली-अविनाशी है. यही है अनुभूति एवं अनुभवों का परिणाम. यह मानो ऐसे है, जैसे पुष्प की सुगंध. इस अनुभूति का विस्मृत नहीं होना ही भावरूप अव्यक्त, ईश्वरीय-शक्ति है, जो सूक्ष्म-ब्रह्मा द्वारा निर्मित जीव-शरीर-तंत्र से आँका नहीं जा सकता. अतः भावरूप-शक्ति ही शांति-पथ-निर्देषक है. जैसा भाव, वैसी कोशिका की व्यवस्था, वैसा शक्ति का निस्तरण. शरीर के ब्रह्मा कार्य के, अन्त हो जाने पर भी भावना का अन्त नहीं होता. वास्तविकता तो यह है कि कोशिका का लचीलापन इतना तीक्ष्ण है कि सोच-बदलते ही कोशिका की व्यवस्था बदल जाती है. वैज्ञानिक तथ्यों से देखा जाये तो, जैसे ; अल्फा, बीटा और गामा-रे, इलेक्ट्रान, प्रोट्रोन और न्यूट्रॉन के रचनात्मक विश्लेष्ण से परिभाषित कर पाना कठिन है. उसी तरह ईश्वर-भाव-रूप को कोशिका-व्यवस्था या किसी अन्य शारिरिक क्रिया से परिभाषित नहीं किया जा सकता है.
गंगा कहती है कि तुम मात्र हमारे “व्यक्त
शरीर” को ही देख रहे हो. मेरा “अव्यक्त शरीर” गो-मुख
से ऊपर विशाल-हिमालय-ग्लेशियर का भाग मानसरोवर से जुड़ा हुआ है, इसके ऊपर के, ताप-दबाब-आद्रता आदि हमारे आकाशीय-मार्ग, वर्षा-हिमपात आदि को परिभाषित करते हैं. इस तरह, मैं ऊपर के विभिन्न अदृष्य शक्तिश्रोतों से जुड़ी हुई हूँ तथा मेरी भूजल-प्रवाह-तकनीक अत्यन्त जटिल है. तुम इसी से समझो कि यमुना, सोन आदि नदियाँ मेरे अगल-बगल से प्रस्फुटित होती हैं, परन्तु सबके जल रंग में अलग-अलग हैं. अतः मेरी अव्यक्त शक्तियां, जो वेद-पुराणों में वर्णित हैं, उन्हें समझो. मोर्फोलोजी जानने के लिये एनाटोमी जानने की आवश्यकता होती है, शरीर की कार्य-पद्धति जानने के लिये पिचिट्यूरी-ग्लैंड
को समझना पड़ता है. इसी तरह हमारे व्यक्त-शरीर को जानने के लिये अव्यक्त शरीर के ज्ञान का होना आवश्यक है. व्यक्त-शरीर, यदि विकृत या मिट भी जाता है फिर भी मैं अव्यक्त-शरीर और भावरूप से तुम्हारी “माँ” रहूँगी ही. अतः सम्पूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी मैं नष्ट नहीं होती.
यही है मेरा ब्रह्मा के कमंडल, विष्णु के चरणकमल और शिव के मस्तक पर का रहस्य. अत: मैं क्या हूँ? इसकी वैज्ञानिकता
को समझने के लिये तुम...
(1)
मुझ से सम्बन्धित समस्त वेद-पुराणों, अन्य-ग्रन्थों, एमटेक-पी.एच.डी और अन्य रिसर्चो का एक “गंगा-पुस्तकालय एवं अन्वेषण केन्द्र” बनवाओ.
(2)
नेशनल टेक्निकल इंस्टिट्यूट ऑफ द गंगा मैनेजमेंट एंड रिसर्च स्थापित करो.
(3)
कम से कम 12 गंगा फील्ड रिसर्च सेंटर्स 200 कि.मी. के अन्तराल पर बनाये जाने की आवश्यकता को समझो. इनके अतिरिक्त स्कूल-स्तर पर “गंगा और मानव में जीवंत समरूपता” नामक पुस्तक द्वारा
पढ़ाई की जानी चाहिये.