असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम् । अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ।। गीता : 16.8 ।।
श्लोक का हिन्दी
अर्थ :
वे आसुरी प्रकृति वाले कहा करते हैं कि जगत आश्रय रहित सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के अपने आप केवल
स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है,
अतएव केवल काम ही इसका कारण है. इसके सिवा और क्या है ?
श्लोक की वैज्ञानिकता
:
आसुरी प्रकृति वाले केवल
देखकर सम्पूर्णता से निर्णय करने वाले होते हैं. वे जगत को आश्रय रहित सर्वथा
असत्य बिना ईश्वर के इसलिये मानते हैं, क्योंकि दुष्कर्म करने वालों को वे दंड भोगते
नहीं देखते वे यह नहीं समझ पाते कि दुष्कर्म एक उच्च कम्पन्नावस्था की तरंग है, यह
शरीर के भीतर प्रवेश कर कोशिका की व्यवस्था को बदलेगा, तदनुरूप उसका शरीर रूग्ण होगा, उसके उपरांत ही उसकी शक्ति घटेगी, इस तरह दुष्कर्म
करते-करते उसकी शक्ति क्षीण होती जायेगी और वह परिणाम भोगेगा. अतः शरीर से शक्ति
का नाप जोख होता रहता है, उसी के अनुरूप
कोशिका व्यवस्था बदलती है इसका परिणाम यह होता है
कि वह समय से दुःख प्राप्त करता है. अतः स्मरण रहे हर एक कार्य
शक्ति है, इसका नाश हो ही नहीं सकता
और इसे छिद्रदार शरीर में प्रवेश करना ही है. यही है, शरीर को कंप्यूटर के साथ प्रिंटिंग
करते अपने आपको बदलते रहना. अतः तुम जो करते हो, वह बीज रूप से
शरीर में स्थापित अंकुरित पुष्पित और फलीत होते शरीर को बदलता रहता है. यही है, हर क्षण तुम्हारे
समस्त कर्मों का परिणाम तुम्हारे शरीर का होना. यही है, हर कार्य के परिणाम को
भोगना. इस ज्ञान का नहीं होना ही आसुरी प्रकृति वाला होता है और वह स्त्री पुरुष के
संयोग से उत्पन्न, काम ही संसार का कारण मानता है और वह समझता है
कि इसे देखने वाला कोई नहीं.
गंगा कहती है :
तुम हमारे शरीर में जिस किसी भी तरह का कार्य करते हो उसका परिणाम कुछ न कुछ होना अवश्यमभावी है, चूँकि कार्य शक्ति है और इसका मात्र रूपांतरण होता है, यह नाश कभी नहीं होता, इसलिये तुम्हारे कार्य के परिणाम से मेरे आन्तरिक गुण, जल की गुणवत्ता को घटना ही घटना है. यह कार्य परिणाम तुम सर्वथा छुपाते रहते हो. अतः यह तुम समझ लो जितना ही तुम्हारा कार्य उतना ही न्यून मेरा जल गुण. टीहरी डैम सहित विभिन्न डैमों और बैरेजों का परिणाम निरंतरता से मेरे जलगुण का घटते जाना है. इसको नहीं समझना कि किन-किन और कैसे-कैसे कार्यों से जल-गुण संतुलित-संरक्षित रहे मात्र भोग से मतलब रखना आसुरी-प्रवृति कहलाता है. इसे हृदयस्थ कर लो की पृथ्वी पर मात्र गंगा ही एकमात्र जल नहीं, अमृत की धारा है, जो धन-सम्पत्ति ही नहीं दिव्य संस्कार और वासनामय दुर्गंध-जीवन से मुक्ति देती है. अतः भारत को मात्र गंगा चाहिए.