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गंगा नदी और गीता - गंगा कहती है – गंगा-जल में जीवंतता की कमी का होते जाना : अध्याय 15, श्लोक 14 (गीता : 14)

  • By
  • U.K. Choudhary
  • December-10-2018
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रिताः। प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्वियम् ।। गीता : 15.14 ।।

श्लोक का हिन्दी अर्थ :

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्निरूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ.

श्लोक की वैज्ञानिकता :

साँस का, प्राण-वायु का भीतर जाना ऑक्सीजन का भीतर जाना है और इस अपान-वायु का भीतर से बाहर आना अर्थात् कार्बनडाइऑक्साइड को बाहर निकलना है. ये दोनों भीतर में जलने की क्रिया के होने को आग को परिलक्षित करता है. दोनों क्रियाओं की अवधि-अन्तराल,  इनकी सरलता और समरूपता, इन्द्रियों और मन से निस्तारित होती रहती सम्मिलित शक्ति-प्रवाहों को एक साथ परिभाषित करती है. अतः साँस का आना-जाना शरीर से हो रहे शक्ति-प्रवाह का और शरीर को शक्ति की आवश्यकता का द्योतक है. यही शरीर के भीतर हो रही समस्त रासायनिक क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का,  पाचन-शक्ति का, भीतरी-अग्नि का सूचक-संचालक यानि इन्डीकेटर और एसटीयरींग  है. प्राण और अपान वायु को सौम्य और संतुलित कर इन्द्री एवं मन को नियंत्रित किया जा सकता है और पाचनशक्ति नियमित और संतुलित की जा सकती है. यही है, ब्रह्म को प्राण और अपान रूप से अग्नि होकर चार-तरह से भोजन को घोटकर, पीकर, चूसकर नाक द्वारा ग्रहण करना है.  

गंगा कहती है :

जिस तरह ज्यादा भोजन करने से तुम हाँफने लगते हो, तेजी से साँस लेते और छोड़ते हो और ऑक्सीजन भीतर रह नहीं पाता, इसी तरह बड़े डैम के रिजर्वायर के तल में विभिन्न पदार्थों के जमा होकर गलने, पचने, सड़ने से जल का घनत्व बढ़ता जाता है और इसमें ऑक्सीजन रखने की क्षमता घटती जाती है और जल में विभिन्न तरहों के जीवाणु उत्पन्न होते हैं. यही है, जितने ही डैम उसी अनुपात में गंगा-जल में आँक्सीजन (D.O) को रखने की क्षमता का घटते जाना और B.O.D का बढ़ते जाना. इसके अतिरिक्त, जितना ही जल का दोहन और विभिन्न स्त्रोतों से अवजल निरंतरता से बढ़ते रहने से जल का घनत्व बढ़ता जाता है और इसमें ऑक्सीजन रखने की क्षमता न्यून होती जाती है. यही कारण है कि गंगाजल अब वाराणसी में पीने योग्य नहीं रह रहा है. यही है, गंगा-जल में जीवंतता की कमी का होते जाना.

गंगा का वैज्ञानिक महत्व :

गंगा जी के द्वारा ऑक्सीजन की कितनी मात्रा का अवशोषण और कार्बनडाइ ऑक्साइड की कितनी मात्रा का निस्तारण होता है, यह इनकी भीतरी श्वास क्रिया शक्ति है और यही इनकी भीतरी पाचनशक्ति को परिभाषित करता है. अपनी इन शक्तियों को ये वातावरणीय असंतुलन को संतुलित करने में लगाती हैं. अतः ये जीव-जगत के कल्याण के लिये परम आदरणीय हैं.

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