“भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।। रात्रागमेंअ्वशः पार्थ प्रभवत्यहरागमें” ।। गीता: 8.19 ।।
हे पार्थ ! यह प्राणी-समुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के वशीभूत हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है और ब्रह्मा की रात्रि के समय लीन होता है.
The very same multitude of beings that existed in the preceding day of Brahman being born again and again, merge, in spite of themselves, O son of Partha into the un manifested at the approach of the night and re-manifest at the approach of the day.
गंगा कहती है...
ब्रह्मा के दिन में जीव का उत्पन्न होना और रात्रि में असहायवत् विलीन होना, थके हुए मानव को जैसे रात में सोने की लाचारी और जीवन भर के कार्य से बुढ़ापे में थका निःसहाय और लाचार मानव अनन्तोगत्वा मृत्व की गोद में विलीन हो जाता है. ठीक इसी तरह, अनंत प्रकार की वनस्पतियों, औषधियों, जलजीवों, विशिष्ट मानवों, संतुलित-समृद्ध चारों ऋतुओं को जब मेरे-दिन के समस्त कार्य, सभी तरह के संभव-निर्माण समाप्त हो जायेंगें, तब, समस्त जीवों के लिए मेरी रात की असहाय-परिस्थति आयेगी, जिसमें सभी विलीन हो जायेगें. यही है ब्रह्मा के दिन के जीवों की अनंत इच्छा-कार्य और रात्रि में जीवों का विलीन होना.