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गंगा नदी और गीता – गंगा कहती है – मेरी प्राकृतिक संरचनाएं विशिष्ट हैं. अध्याय 18, श्लोक 17 (गीता : 17)

  • By
  • U.K. Choudhary
  • May-17-2019
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निवध्यते ।। गीता : 18.17 ।।

श्लोक का हिन्दी अर्थ :

जो मिथ्या अहंकार से प्रेरित नहीं है, जिसकी बुद्धि बँधी नहीं है , वह इस संसार में मनुष्यों को मारता हुआ भी नहीं मारता. न ही वह अपनें कर्मों से बँधा होता है.

श्लोक की वैज्ञानिकता :

आत्मा, परमात्मा से आवद्ध उसी तरह है जैसे न्यूक्लियस का प्रोट्रोन अधीनस्थ है न्यूट्रॉन के. अतः अकेले केवल प्रोट्रोन से एक ही आवेश के कारण न्यूक्लियस विखंडित होंगें, आण्विक संरचना ध्वस्त होगी. ठीक इसी तरह हृदयस्थ, केन्द्रस्थ आत्मा बिना परमात्मा के रह नहीं सकता. यही है न्यूक्लियस में आत्मा-परमात्मा के होने का ज्ञान यह शरीरस्थ न्यूक्लियस इन्द्रिय रूपी विभिन्न ऑर्बिटल्स के अन्दर हैं, जो इनकी इन्द्रियों की पारिस्थितिकी आर्बिटल शक्तियों से नियंत्रित होती है. यही है आत्मा का स्वतंत्र नहीं होना. यही पाँच हैं भौतिकी रासायनिक क्रिया-प्रतिक्रिया के परिणाम को देने वाले.

(27) स्थितप्रग्य भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ज्ञानी और कर्म योगी हैं?

गीता (5.26 और 18.17 ) कहती है कि काम क्रोध रहित जीते हुए चित्त वाले और परमात्मा के अनूभूति वाले सर्वत्र शांत भाव वाले होते हैं और उन्हें स्वयं में यह अहंकार नहीं होता कि ‘कर्ता मैं हूँ’.  कवि के हृदयस्थ बातें, ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’ प्रस्फुटित यहाँ तब हो रही है जब वे जगजननी माँ के श्री चरणों में प्रणाम कर कहते हैं कि ‘यहाँ प्रेम नाम के तत्व का साकार रूप जीवंत बन सबको स्पर्श कर रहा है, ‘अहम’ में से ‘वयम’ की ओर गति का यह परिणाम है. यहाँ तो यौवन हिलौरे ले रहा है, सर्दियों की कड़कड़ाती ऐसी ठंढ में ये सब यहाँ कष्ट उठाने एकत्र हुए हैं और इसका भी आनंद है, इसका उन्हें पता है यहाँ सब प्रकार की असुविधाएं हैं फिर भी चेहरे पर आनंद है हृदय में विराजमान अपार श्रद्धा का ही यह परिणाम है न? और तभी तो यह संभव होता है. कितना अधिक आत्मविश्वास और श्रद्धा इन हृदयों में भरी हुई है. मातृभूमि के कल्याण के लिए इनकी कटिबद्धता कितनी जुझारू है. ये हैं मातृभूमि के प्रति भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की महान त्याग श्रद्धा और अगाध प्रेम का परिचायक (पुस्तक-साक्षीभाव ; पृष्ठ 54-55)

गंगा कहती हैं :

जो मैं हूँ, जिन-जिन विभिन्न गुणों-शक्तियों से आवेष्टित मैं हूँ, वह मेरी अपनी नहीं है. मेरे जल के समस्त गुण, इसकी स्थैतिक-गतिज और रासायनिक ऊर्जाओं के विभिन्न स्त्रोत हैं. इन स्त्रोतों में बेसिन के सतहीपन की क्रमबद्धता, इनकी विविधता, इनकी रचनात्मक विलक्षणतायें, मेरे शरीर में आने वाले आधारभूत जल-भूजल का स्त्रोत है. इनके उपरांत नतोदर-उन्नतोदर किनारे के फ्लड-प्लेन, बाढ़-क्षेत्र की संरचना मेरे सर्वगुण प्रवाह को परिभाषित करता है. इन प्राकृतिक संरचनाओं के अतिरिक्त मानवीय क्रियाकलापों से मैं आवेष्ठित होती रहती हूँ. अतः मैं जो हूँ वह नहीं हूँ, तुम जो भावना रखते वही रैदास वाली ‘कठौती में गंगा’ हूँ.

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