अक्षराणामकारोस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च । अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ।। गीता : 10.33 ।।
श्लोक का हिन्दी अर्थ :
मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वन्द नामक समास हूँ, काल का भी महाकाल हूँ और सबका धारण-पोषण करने वाली हूँ.
श्लोक की वैज्ञानिकता :
राम,
कृष्ण, गीता, श्याम, अश्त्र, आदि समस्त शव्दों में ‘अ’ ध्वनि तरंग की समरूपता की स्थिर अखण्डता, परब्रह्म के मौलिक गुण स्वभाव का शक्ति प्रवाह पद्धति का परिचायक ब्रह्म-स्वरूपा है. द्वन्द समास शरीर से शक्ति तरंगों का निस्तारण और अवशोषण की निरंतरता के साथ इनकी अनिवार्यता ब्रह्म का परिचायक है. शक्ति तरंगों के अन्तः एवं बाह्य प्रवाह से कोशिका की निरंतरता से अपवाद रहित होते विघटन से अन्त का अवश्यमभावी होना, काल का होना और इस काल का भी अन्त प्रलय महाकाल का होना ही ब्रह्म का होना है और सूक्ष्म वृहत समस्त थरथर-काँपते कणों के भीतर का स्थिर कण न्यूक्लियस का ‘न्यूट्रोंन’ अन्य समस्त कणों का धारक पोषक सर्वत्र निरंतर वर्तमान ब्रह्म है.
गंगा कहती है :
मेरे प्रवाह की कल-कल आवाज जगह और समय से बदलते ध्वनि-तरंग से जल के बदलते घनत्व वेग तथा रासायनिक अवयवों का विश्लेषण किया जा सकता है. जापान के
वैज्ञानिक ने यह सत्यापित कर दिखाया है कि जल अपने गुण के आधार पर ध्वनि तरंग से अपने मोलेकुलर संरचना को बदलता है. अतः जल ध्वनि-तरंग मेरे चरित्र को परिभाषित करने वाला ब्रह्मरूपा है. मेरा संतुलन पदार्थ और शक्ति की अन्तः एवं बाह्य-प्रवाह का अन्तर वातावरणीय स्वरूप को निर्धारित करता है. निरंतर बढ़ते जल के दोहन से, बढते ताप और कम होती वर्षा और जल का संचयन नही होना जटिल समस्या का कारण है. यही है, मेरे चरित्र के द्वन्द समास का नष्ट होना. यही सब है, मेरी विकट परिस्थियों बाढ़, कटाव व प्रदूषण आदि का बढ़ना. इनके बाबजूद मेरा अभी तक बचते आते रहना, काल का महाकाल होना, फिर भी मैं जल रूप से समस्त प्राणियों मे निरंतर रहने वाली उनको धारण और पोषण करने वाली उनकी माँ हूँ.